शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

आंचल में बा लाश, झरे आंखिन से पानी.।

आंचल में बा लाश, झरे आंखिन से पानी.।
पौराणिक काल में बहुत राक्षसन के नाम सुनले होखब सभे। येह समय बीमारी के रूप में डोढ़ी, ताड़का, जम्हु, नरकासुर, कालीनाग, बकासुर..आदि के सम्मलित अवतार भइल बा। नाव बा- जेई, इंसेफेलाइटिस,नवकी बीमारी, जापानी बुखार। इ राक्षस केतना माई-बहिनिन की गोद के लाल खा-चबा गइल। केतना कुल के दीपक कुल-परिवार के रोशन कइला की पहिले ही बुझ गइलें। कवनो अइसन दिन ना बा जवना दिने येह बीमारी से पांच-छह गो लरिका ना मरत हवें। आजादी मिलले 64 साल भइल, लेकिन 32 साल से इ बीमारी भी आजाद हो गइल बा। पहिले की जमाना में हैजा, प्लेग, तावन आवत रहे। आज की समय में जापानी बुखार, नवकी बेमारी। बीमारी की वजह से कविता के लाइन बदल गइल- पूर्वाचल की माई बहिनिन के इहे कहानी। आंचल में बा लाश, झरे आंखिन से पानी.। पूर्वाचल में इ बीमारी भले महामारी के रूप ध लेले बा, माई-बहिन लोग की आंखि से पानी भले झरत हवे, लेकिन सरकार आ लालफीताशाही चदरा तान के सुतल बा। जगला की नाम पर जागल हवें शहर के सांसद आ विधायक। मंगर की दिने बाबा व्यापक जनजागरुकता अभियान चलवलें। मेडिकल कालेज से लेके कमिश्नरी तक पदयात्रा कइलन। बड़ा समर्थन मिलल। बात त संसद अउर विधान सभा में भी दमदारी से उठे के चाहीं, कुछ उठलो बा। सड़क पर बात उठवला के लोग ‘ पर-दर्शन ’ कहत हवें। मेडिकल कालेज से कमिश्नरी आठ किलोमीटर पैदल यात्रा में संसद आ विधायक की साथ कुछ जागरुक लोग जगावत कमिश्नरी ले आ गइलें। एक किलोमीटर लंबा लोगन के भीड़ रहे। जब ज्ञापन दिहला के बेरा आइल, त दुनो जने के इगो टकराइल। आठ किलोमीटर बाबा चलि के अइलें लेकिन दस कदम भीतर ना गइलें। कमिश्नर भी दस कदम बाहर ना अइलें। कमिश्नर साहब कहलें- दफ्तर से बहरा निकर के ज्ञापन ना लेइब। योगी बाबा कहलें-हम अकेले ना हई, हजारन मनई साथ हवें। दफ्तर में एतना मनई कहां समइहें। सही कहल गइल बा- ‘ घर के योगी योग-ना, आन गांव के सिद्ध’। बीमारी के मुद्दा पीछे, आ भीतर गइला बाहर अइला के मुद्दा आगे हो गइल। अंत में संत का सुझल बीच के राह। ज्ञापन नोटिस बोर्ड पर ही चस्पा करि के चल दिहलें। लोकतंत्र आ लालफीताशाही की कड़वाहट में कुछ कड़वी कविता-
आपन आंखि तरेर के, कहे जापानी बुखार। कुलदीपकों को खाउंगा, एक-एक को मार।।
मेडिकल में आकर के नित, क्यों फंसते इंसान। लाश रोज ही छोड़ता, हर लेता है प्रान।।
कितने कुल दीपक बुझे, कितनी कोख बीरान। साफ-सफाई हवा हवाई,पहुंच रहे श्मशान।।
मां की ममता रो रही,गिरते पिता पछाड़। दुख की दरिया बह रही, दिया कलेजा फाड़।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय  सहारा के २० -१०-११ के अंक में प्रकाशित है .

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