गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

चलù चलीं जां नदी किनारे घाट बइठ के गिने लाश..



जिस्म कांपे, हाड़ कांपे, रुह में भी कपकपी।
सौ-सवा सौ रोज मरते, केकर-केकर नाम जपीं।।
भीड़ से अचिका सा हटिके, इहो तमाशा देखिं लीं।
बंट रहल कंबल बा कइसे, गहरा कुहासा देखिं लीं।। 
गील बोटा उठे धुआं, तापीं अलाव ना हो निराश।
चलù चलीं जां नदी किनारे, घाट बइठ के गिने लाश।।
ठंड से मुअत मनई अखबारवाला छापत हवें।
सरकारी महकमा के देखीं, टंपरेचर बस नापत हवें।।
उनकी फाइल में ना जाने, मृतकन के नाम कहवां गइल। 
माघ जे ना निबुकी, जमराज की उहवां गइल।। 
साहब कहें कि लाश के चिरवा के कराùव एहसास। 
चलù चलीं जां नदी किनारे, घाट बइठ के गिने लाश।।
ठंड मारत जान बाटे, गरीबन की घर में घुसिके।
सरकार सुतल आंखि पट्टी, कान रुई ठूंसिके।।
कुछ बहुरुपिया जनसेवा के स्वांग रचा मुसकात हवें।
बांटत हवें सरकारी सेवा, याकि सीधे खात हवें।।
कब मिटी इ धुंध घेरलसि, बा जवन विरोधाभास।
चलù चलीं जां नदी किनारे, घाट बइठ के गिने लाश।।
मार कोहरा के परत , जनजीवन सब ठप्प बा।
रेल बस वायुयान लेट, का इहे बतिया गप्प बा।
सर्दी के सितम से केतनन के डोंटी ढील बा। 
जोड़न में दर्द अंकड़न बा, जइसे धंसल कोई कील बा।। 
दांत बाजत कड़कड़ात कइसे बीती इ पूस मास। 
चलù चलीं जां नदी किनारे, घाट बइठ के गिने लाश।।
बहुतन के धइलसि झुनझुनी, केतनन के अंग सुन्न बा।
माथा पिरात कस के बा, बेहोश बा कि टुन्न बा।।
भीड़ अस्पताल में बा, समस्या बड़ी विकराल बा।
सर्दी शीतलहर कहीं कि साक्षात इ त काल बा।।
हम गिन-गिन छापीं ठंड मरन, उ कहलें इ बकवास।
चलù चलीं जां नदी किनारे, घाट बइठ के गिने लाश।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती की यह व्यंग्य रचना राष्ट्रीय सहारा के २२ दिसंबर ११ के अंक में प्रकाशित है .

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