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बाबा बहुत चिंतित हवें। जब चिंता के कारण पूछल गइल त कहलें- का बताईं , गांवन में धरकोसवा के बहुते हल्ला बा। हितई-नतई रात-बिरात गइला में नाहके लोग पिटा जात हवें। संतकबीरनगर में ऊंखि की खेत में प्रेमी युगल बोरा बिछा के इलू-इलू करत रहलें, गांव वाला धरकोसवा कहि के धुन दिहलें। देवरिया में एक जने मरद-मेहरारू स्टेशन से उतर के पैदले सढ़ुआने के राहि धइलें, अंजोरिया रात में गांव की सिवाने पर पहुंचलें, तवले गांववाला लाठी डंडा लेके बटुर गइलें। धरकोसवा-धरकोसवा कहि के धुने लगलें। उ चिचियाते रह गइलें हम फलनवां के मउसा हई, हई मउसी हई.। सबसे खराब हालत बेलोरो वालन के बा। कवनो गांव में रात में बेलोरो गइल कि आफत आइल। अइसने बहुत खबर। शहर में राहि चलल मुश्किल बा। कवनो ओर जाइब, जाम में घेराइब। बहुत व्यवस्था बदलाइल, लेकिन जाम से मुक्ति ना मिलल। मिलबो ना करी, गाड़ी-घोड़ा बढ़त जात बा सड़किया त उहे बा। इ त रहल गांव-शहर के खबर। अब तनि अखबारन की दफ्तरन के हाल सुनीं। गोरखपुर में प्रेस क्लब के चुनाव होखेवाला बा। बहुत हलचल बा। प्रत्याशी लोग पत्रकारीय काम छोड़ के नेतागीरी पर उतर गइल हवें। पांचों वखत दुआ-सलाम। जवना पत्रकार भाई के अपने मेहरी-लरिका कहना नेइखे सुनत उहो कंडीडेट लड़ावत हवें। दावत के दौर ओइसे चलत बा जइसे गांवन में परधानी के चुनाव। कई जने पत्रकार भाई एतना खींच के खा लेत हवें कि दुनो पवन चलत बा। उल्टी-सीधी दूनों शुरू। अरे भइया, दाना भले दूसरे के ह देंहि त आपने ह, बचा के..। चुनाव भले पत्रकार लोग के होत बा, लेकिन प्रचार में सेल्समैन, हेल्थमैन,गनमैन,मशीनमैन,गुड मैन, बैडमैन, हैटमैन, फैटमैन, चैटमैन, रैटमैन, कैटमैन, दुकानदार, ठेकेदार, वफादार, दफादार, दागदार, रसूखदार, रसदार ..(सब शब्दन के अर्थ अपनी हिसाब से लगा लेइब सभे) अउर न जाने कवन-कवन लोग लगल बा। एक जने पत्रकार कम ठेकदार अइलें, कहलें-बाबा!
असों फलां के अशीर्वाद दिया जाव। इ जीतिहें त ‘शीला के जवानी’ आ ‘मुन्नी बदनाम’ से भी बढ़िया कार्यक्रम होई। दावत में बिरियानी बिछवा दिहल जाई। बोतल-शीशी के कवन कहीं ड्रम के ड्रम के मिली। बाबा भड़क के खाड़ हो गइलें, कहलें अब इहे ‘पत्रकारिता’ रहि गइल बा। प्रेस क्लब के कमाई कम ना बा। पचास हजार रूपया महीना त बटुराई जाता। तीन गो कर्मचारी रखल हवें पंद्रह हजार में निवट जात होइहन। दस हजार के बिजली फूंकात होई। तबो तीन लाख बचि जात होई। सवाल इ बा- ए तीन लाख में पत्रकारहित के कवन काम होला? अपने हीत-नात-बात के लाभ भले दिया जात होई। सामूहिक बीमा के बात त बहुत सुनल गइल, लेकिन शुरू केहू ना करावल। मनबोध मास्टर कहलें- बाबा शीरा में गिरल- पड़ल-मरल चिउटा जनि निहारीं, मिठाई के मिठास देखीं। असों फलाने के वोट दे दीं। बाबा कहलें- केके दे दीं, हमरा खातिर सभे बरोबर बा-
जइसन उदयी ओइसन भान। इनका आंखि ना उनका कान।।
बाइस पसेरी सगरो धान। रुख ना बिरिछ तहं रेड़ परधान।।
सौ पुराचरन ना एगो दुराचरन। केतना ले सुख दीहें दुखहरन।।
अन्हरा सियार के बा गुलरी मिठाई। पापी के पाप से पड़ोसी भी जाई।।
नाव दरियाव हवे पानी के ठेकान ना। नीम त हकीम हवें खतरे में जान बा।।
चार के जोन्हरी चौदह आना के मचान बा। ओखरी में मूड़ मूसरे लहान बा।।
नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के १३ अक्तूबर २०११ में प्रकाशित है .
bahut badhiya likha sir, bebak coment ke liye dhanybad
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