रविवार, 30 अक्तूबर 2022

एन डी देहाती: भोजपुरी व्यंग्य 30 अक्टूबर 22

छठ मईया के पूजा,
आ सूरजदेव के अरघा

हाल-बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पूछलन-बाबा ! का हाल बा?
बाबा बतवलें- हाल का बताईं? पूरा महीना तिहुआर के ही बहार रहल। महंगी की मार से लाचार मनई, आ ऊपर से तिहुआर के भार। एह महीना में दुर्गा जी पूजईली। लक्ष्मी जी पूजईली। गोधन बाबा कुटइलें। पीड़िया लाग गईल। आज छठ माई पूजात हईं। आस्था के लोकपर्व एक पर एक चढ़ल चल आईल। गरीबी भगावे खातिर माई बहिनी लोग सूप बजा के दलिद्दर खेदल। घर से बहरा खेदा गईल। सूप त बाजल, का सचहुँ दलिद्दर भागल? ईआ, बड़की माई, काकी ,भौजी, बहुरिया और न जाने के- के असो भी सूप बजावल। बस एगो इच्छा दलिद्दर भाग जा। मतलब साफ बा बगैर शोर के कुछ न भागी। सीमा पर दुश्मन। देश में गद्दार। गरीबी आ भ्रष्टाचार। सब भगावे खातिर शोर वाली परम्परा। आजादी से लेके अबतक खूब भोपू बाजल। हकीकत आप की सामने बा। केतना दलिद्दर भागल? भागे न भागे हमार काम भगावल ह। सबके जगावल ह। ई देश विविधता के देश ह। गोधन बाबा कूटालें। पीड़िया माई बन जाली। कलम-दावात के पूजा होला चित्रगुप्त महराज प्रसन्न हो जालें। छठ आ गइल। नयाह-खाय-खरना-अर्घ की तैयारी में लागल लोग। सालोंसाल गंदगी आ कचरा वाली जगह पर साफ-सफाई की साथे छठ के बेदी बने लागल। पर्व के सफर, त्योहार के सिलसिला, अइसे ही चलत रही। छठ माई के व्रत होई आ सूर्य भगवान अर्घ्य लिहे। महंगाई पर रोज- रोज रोवे वाला मनई के हाथ भी त्योहार पर सकेस्त ना भइल। खूब खरीदारी भइल। इ भारतीय उत्सव ह। उत्सवधर्मिता में कहीं कवनों कंजूसी ना। धनतेरस की दिने से ही त्योहार के उत्साह शुरू बा। त्योहार हम्मन के संस्कृति ह। केतना सहेज के राखल बा। धनतेरस के एक ओर गहना-गुरिया, वर्तन- ओरतन, गाड़ी-घोड़ा किनला के होड़ त दूसरी ओर भगवान धन्वंतरि के अराधना- जीवेम शरदं शतम् के अपेक्षा। प्रकाश पर्व पर दीया बारि के घर के कोने-अंतरा से भी अंधकार भगा दिहल गइल। जग प्रकाशित भइल। मन के भीतर झांक के देखला के जरूरत बा, केतना अंजोर बा? ये अंजोर से पास- पड़ोस, गांव-जवार, देश-काल में केतना अंजोर बिखेरल गइल? दलिद्दर खेदला के परंपरा निभावल गइल। घर की कोना-कोना में सूपा बजाके दलिद्दर भगावल गइल लेकिन मन में बइठल दलिद्दर भागल? दुनिया की पाप-पुन्य के लेखा-जोखा राखे वाला चित्रगुप्त महराज पूजल गइलें। बहुत सहेज के रखल गइल दुर्लभ कलम-दावात के दर्शन से मन प्रसन्न हो गइल। अपनी कर्म के लेखा-जोखा जे ना राखल,ओकरी पूजा से चित्रगुप्त महराज केतना प्रसन्न होइहन? छठ माई के घाट अगर साल के तीन सौ पैंसठों दिन एतने स्वच्छ रहित त केतना सुन्नर रहित। पर्व-त्योहार के जड़ हमरी संस्कृति में बहुत गहिर ले समाइल बा। 

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।।

रविवार, 23 अक्तूबर 2022

भोजपुरी व्यंग्य: 23 अक्टूबर 22

शास्त्र पड़ल पंसारी की बखरा

हाल-बेहाल बा/ एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें- बाबा! का हाल बा?बाबा बतवलें- हाल बड़ा बेहाल बा। केकर-केकर लेई नाव, धोती खोलले सगरो गांव। धोती से मतलब तन ढांके वाला पांच गज के कपड़ा से ही ना बा। धोती मर्यादा ह, इज्जत ह, प्रतिष्ठा ह, मान ह, सम्मान ह, पहिचान ह सभ्यता आ संस्कृति के। केतना लोग के धोती बांस की पुलई टंगा गइल। इ अनपढ़- गंवार के मटमैली धोती ना रहल। इ धोती बहुत झकास, चमकदार रहल। रूपांतर मे येके कहीं वर्दी, कहीं बाना कहल गइल। बाना में जे बंधि के ना रहलन, त संत, महंत, समाजसेवी, शासक, प्रशासक के बड़ा छिछालेदर भइल। बचपन में पढ़ल गइल-  महाजनो येन गत: स पंथा। मतलब, समाज के श्रेष्ठ लोग जवना राह चलें, ओकर अनुकरण करे के चाहीं। केकर अनुकरण कइल जा। धर्म गुरु, बड़ अफसर, जज, नेता, शासक, प्रशासक, पत्रकार...। दूसरा के नैतिकता के पाठ पढ़ावल बहुत आसान बा।  अपनी गिरेवान में झांकल बहुत विकट बा। बात पत्रकार बिरादरी (जाति ना पेशा) से ही करत हई। एगो समय रहे चारों ओर तहलका, तहलका। अब त- हलका हो गइल। तरुण की तरुणाई में एक से एक स्टिंग। भूचाल आ जात रहे। अब ईमानदार मीडिया ट्रायल पर कइसे लोग भरोसा करी जब अपने में छिहत्तर गो छेद बा। अवला जब अत्याचार के खिलाफ खड़ा होलिन त बला बन के पीछे पड़ेलिन। रउरा सभ की सामने उदाहरण बा कथावाचक आसाराम, स्वामी नित्यानंद, नारारण साई अइसन ऊंचा लोग भी मार्ग से भटकलें त ओछा लोग की श्रेणी में आ गइलन। हरियाणा बेहतर नस्ल की सांड खातिर विख्यात रहल। एगो डीजीपी तब कुख्यात हो गइल रहे। जब टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ के आरोप लगवले रहली। सांड नथाइल, जेल भेजाइल। पंजाब के डीजी भी अइसने एगो मामला में जेल के हवा खइले रहलन। और भी बहुत उदाहरण बा। मोटा-मोटी कहे के बा कि मन के तरंग मारि लीं। जब मन बौराई त अइसने अनैतिक आ ओछा काम हो जाई जवना से धोती टंगा जाई। मन के तरंग ना मराई त बुरा विचार उठी। बुरा विचार की चलते ही कई जने साधु-संत, सांसद-विधायक, वकील-जज, पत्रकार-संपादक, शासक-प्रशासक पर भी संगीन आरोप लगल। धोती टंगल, जग हंसाई भइल। सभ्य, शिक्षित कहाये वाला समाज के अगुआ लोग जवन बहुत ज्ञानी हवें। बहुत शास्त्र पढ़लें, लेकिन एतना शास्त्र पढ़ला की बाद भी जेकर मन भटक गइल, अहंकार कपार पर चढ़ के बोले, त बुझी की कुछु ज्ञान हासिल ना भईल बा। कवनो शास्त्र अगर पंसारी की बखरा पड़ जाई त उ पढ़ी की फारि के मसाला बेची ओकरा ऊपर बा। 
पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।।

सोमवार, 17 अक्तूबर 2022

भोजपुरी व्यंग्य 7 अगस्त 22

घरे-घरे तिरंगा लहरे, राष्ट्रभक्ति के पताका फहरे

हाल- बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें-बाबा! का हाल बा? बाबा बतवलें-हाल त बेहाल बा, लेकिन एक बात के खुशी बा कि आजादी की पचहतर वर्ष बाद राष्ट्र आ राष्ट्रभक्ति के स्वरूप बदलल बा। राष्ट्र, विश्व गुरु बन गईल आ तिरंगा अब रतियो में राष्ट्रभक्ति के प्रतीक। घरे-घरे तिरंगा लहरत बा। राष्ट्रभक्ति के पताका फहरत बा। राष्ट्र उहे रहल लेकिन नेतृत्व बदलल त विश्व के बड़का देश भी हमार अहमियत समझले। मतलब केहू खोखें त हमसे पूछ के। तिरंगा पहिले दिन में ही लहरत रहल। सांझ होते अगर सम्मान सहित ना उतरत रहे त अपमान समझल जात रहे। पन्द्रह अगस्त आ छब्बीस जनवरी के मास्टर साहब लोगन का जेतना मिठाई के चिंता ना रहत रहे, ओतना चिंता एह बात के की सांझ के झंडा कईसे उतार के रखाई। घर से दुबारा स्कूल ना जाये के परे एकरा खातिर लोग गाँव में ही केहू के पटिया के, मिठाई के दोना तनी बढ़ा के दिहल जात रहे। गाँव के उ बन्दा झंडा के आदर-अनादर भले न समझत रहे लेकिन मास्टर साहब के बढ़ा के दिहल मिठाई के ही आपन सम्मान आ दायित्व बुझत रहे। असों, राष्ट्रभक्ति की भावना में झंडा के नियम बदल गईल। अब रातों-दिन फहरायीं। मंत्री- मनिस्टर की भांति रउरो अपनी वाहन पर लहराईं। लाल किला से कम अपनी घरवों में मत समझीं। घर ना होखें त झोपड़िये सही, झोपड़ी भी ना होखे त टाटी-प्लास्टिक कुछू जवन सर ढंके खातिर अपनी हैसियत से खड़ा कईले हईं ओके कवनो महल-अटारी से कम जनि समझीं। खूब जश्न मनाईं। असो अमृत महोत्सव मनत बा। रउरो मनाईं। सालों-साल महंगाई के रोवल-धोअल छोड़ी, समझीं की आसमान से सीधे अमृत रउरीये मुँह में गिरल बा। बाप-दादा, पुरखा-पुरनिया ढाई सौ बरस बेबसी आ गुलामी भोगले रहे। बड़ा कुर्बानी देले रहलें, तब ई सोने के चिरई आजाद भईल रहे। दुनिया के तमाम देश हमरे देश की संगही आजाद भइलें। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आ बाकी देश भी  जम्हूरियत के चिराग जरवलें। सब कर चिराग बुझ गईल। हिन्दुस्तान ही एगो अईसन अकेला देश बा जहां लोकशाही के चिराग आजुओ जरत बा। लोकशाही के चिराग कबो बुझे ना दिहल जाई। जरूरी एह बात के बा कि अपनी शास्त्रन से, अपनी संस्कृति से, अपनी सभ्यता से, अपनी सनातन पक्ष के कबो बिसरे ना दिहल जा। वास्तविक धरातल के सच भी देखावला के साहस राखल जा। अमृत के असल हकदार देव तुल्य जनता ही होले, लेकिन आज सत्ता के आवरण ओढ़ के कईसे राहु-केतु भी छक के अमृत पिअत बाड़न ओहुन पर नजर राखल जा। चुनल प्रतिनिधि जवन मंगनी की बाइक से चलत रहे, दु साल में फार्च्यूनर से कईसे चले लागल? जनता के घरेलू गैस पैसा की अभाव में ना भराई, आ नेताजी लोग की घरे एतना रुपया मिली कि मशीन भी गिने में गरमा जाई, ई ना होखे के चाहीं। लोकतंत्र की सहारे बादशाहीयत अर्जित करे वालन नेतन के भी लेखा-जोखा राखल जरूरी बा। नाहीं त सबके तिरंगा लहरवला में अझुरा के सजो अमृत इहे पी जइहैं। नेतन की सुख-सुविधा में कटौती कर के आम जनता खातिर योजना बनवला के काम बा। तब जाके आजादी अमृत महोत्सव के मजा आई। केहू खात-खात मरी- आ केहू खइला बिना कुहकी, ई ना चली। बगल में श्रीलंका के हाल देख लीं।
पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।

भोजपुरी व्यंग्य: 9 अक्टूबर 22

हालत विचित्र बा, रावन ही मित्र बा

हाल-बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें- बाबा ! का हाल बा? बाबा बतवलें- हाल त बेहाल बा। पितरपख की बाद नवरातन ले मांसाहारी लोग के उदासी अब हुलासी में बदल गईल बा। आदमी के बस चले त जीया-जंतु का, आदमी के भी पका के खा जाई। श्रीराम के भक्त कम, आ रावणी प्रवृति वाला लोग धरती पर ज्यादा हो गइल बा। हालत विचित्र बा, रावण ही मित्र बा। लोग की मन में ही रावण समा गइल बा। विभीषण के चरित्र भी बदल गइल बा। अब उ रामजी के सही भेद ना बतावत हवें, की रावण की नाभि में अमृत बा। रावण अपनी चतुराई से अमृत के जगह बदल देले बा। अब रामजी एक बाण मारे चाहें इकतीस वाण, रावण के कुछु बिगड़े वाला ना बा। का जमाना आ गइल बा। नाभि खोल के देखावला के चलन बढ़ गइल बा। पूरा दशहरा माई के मूर्ति रख के भोजपुरी के ढोढ़ी वाला गन्दा गीत बाजल। मना कईला पर भक्त बाजि जइहैं। सत्य सकुचात बा। झूठ मोटात बा। नैतिकता के पर्व के रूप में, न्याय की स्थापना में, विजय पर्व की याद में दशहरा मनावला के परंपरा शुरू भइल। येही दिन त रावण के वध भइल रहे। युगन से रावण दहन होत आवता, लेकिन रावण जिंदा बा। चारों ओर रावण अट्टहास करत बा। देखला के दृष्टि चाहीं। दूसरे की दिल में ना, अपने मन में झांक के देखीं। मन में रावण बैठल बा। मन के रावण मरला बगैर कागज-पटाखा की रावण के पुतला फूंकले ना शांति मिली ना संतुष्टि। प्रवृति आसुरी हो गइल बा। एगो सीता मइया की हरण में रावण साधु वेष बनवलसि। मौजूदा समय में साधु वेशधारिन के संख्या असंख्य बा। जे साधु वेश में ना बा ओकरो मन में रावण के माया राज करति बा। रावण त सीता मइया के खाली हरण कइलसि, आज हरण की तुरंत बाद वरण आ ना मनला पर मरण तक पहुंचवला के स्थिति बा। रहल बात रामजी के, त उंहा के नाम बेचल जाता। रामजी की नाम पर कथा, प्रवचन, भजन बहाना बा, लक्ष्मी बिटोरला के धंधा तेज बा। ई धरती वास्तविक राम आ उनकी भक्तन की भक्ति से बचल बा। रावण के एगो रूप नवरात्र के आखिरी दिन देखे के मिलल, जब कन्या भोज खातिर मनबोध मास्टर घर-घर लड़की तलाशत रहलें। कई घर छनला की बाद बहुत मुश्किल से 21 कन्या मिलली। दरअसल रावण प्रवृति में एतना कन्या भ्रूण हत्या भइल की लड़की लोग के संख्या ही कम हो गइल। एकरा पीछे के कारण तलाशीं त साफ हो जाई की रावण के दुसरका रूप दहेज की आतंक से कन्या भ्रूण हत्या के संख्या बढ़त बा। फिर भी हम भक्ति में लीन होके गावत हईं- माई हो, तनी आ जईतू। हर साल विसर्जन की दिने दारू के ठेका बन्द रहत रहे। असो ओहू के खोलला के आदेश रहल ह। बगैर शीशी के जयकार के ध्वनि भला कहां सुनाई। रावन के प्रमुख आहार मांस आ मदिरा ही त रहल। आज मनई भी उहे अपनवले बा। सात्विक जीवन दुर्लभ बा। आडम्बर के बोलबाला बा। बड़वर सवाल ई बा कि शत्रु आ मित्र पहचानल मुश्किल हो गइल बा। अब रावन ही मित्र बा। ज्यादातर लोग के रावन के ही चरित्र बा।

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब, अगिला हफ्ते।।

रविवार, 16 अक्तूबर 2022

भोजपुरी व्यंग्य:16 अक्टूबर 22

रोज लताड़ेली, एक दिन निहारेली

हाल-बेहाल बा/ एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें- बाबा! का हाल बा? बाबा बतवलें- हाल त बेहाल बा। सब माया के जाल बा। त्योहारन के बहार बा। मलिकाइन खुश, मालिक लाचार बा। सब की बावजूद सलीमा आ टीवी वालन की महिमा से घर-घर मनई जवन सालों-साल लताड़ल जात रहे, ओहू के एक दिन पूजाये के मौका मिल जाता। धन्य हो करवा चौथ। सालो-साल गाल फुलवले, मुंह ओरमवले वाली पंडिताइन आज बिहाने-बिहाने से ही चहकत रहली। उनकर रूपजाल देख के बाबा सम्मोहित रहलें, रोमांचित रहलें, आनंदित रहलें। झुराइल जिनगी की रेगिस्तान में कुछ-कुछ हरियर लउके लागल। उषाकाल से अपरान्ह काल तक पंडिताइन के एक ही रट-  ए जी! सुनत हई। संवकेरे घरे आ जाइब, आज करवा चौथ ह। चलनी में चांद निहारे के बा। राउर आरती उतारेके बा। बाबा सोचे लगलें- अगर इ व्रत ना रहित, त पंडिताइन सीधे मुंह बात भी ना करती। जेकरा पर पूरा जवानी कुर्बान क दिहल गइल, उ कब्बो हरियर मन से बात ना कईली । भला हो हमरी संस्कृति के, हमरी परंपरा के, पर्व-त्योहार के। इ प्रेम के उमंग बढ़ावत बा। जीवन में खुशबू महकावत बा। घरकच की करकच में रोज-रोज घटल नून-तेल-मरिचाई के चिंता से मुक्ति दिया के पूजा-पाठ-वंदन के उछाह बढ़ावत बा। इहे कुछ सोचते रहलें की पंडिताइन के फोन फेर आइल- ए जी! पौने आठ हो गइल। जल्दी आई , चनरमा उगहि वाला हवें। बाबा अत्रकारित-पत्रकारिता छोड़ के घर की ओर चल दिहलें। सुबह-शाम में एतना अंतर। जीवन में पहिला बेर कातिक में बाढ़ देखलीं। घाघरा घघा के अईसन बढ़त रहे की अट्ठानबे के इतिहास दोहरावे में लागल रहे। जवना सड़क आ बन्धा से सुखरखे गईल रहनी। गंगा बहत रहे। जूता-मोजा-पतलून भीग गइल। डुमरी की बन्धा पर सालों-साल साही के मानि ना भराईल रहे। अब बाढ़ विभाग बोरी में माटी से बिल मुनला में लागल रहे। देवरहा बाबा के आश्रम में पानी देखे आईल रहे अधिकारी लोग नरिआव से ही गोड़ लाग के लवटि गईलें। कसिली पुल से हरहरात सरयू मईया अडिला, ड्योढ़ी के नहवावत आगे बढ़त रहली। बैंक, स्कूल, अस्पताल सब पानी से घेराईल रहे। गोर्रा गुर्रात रहे। घाघरा घघात रहे। पानी बढियात रहे। सालों साल बाढ़ के इंतजाम करे वाला लोग ऊंघात रहे। साहब-शुब्बा-नेता आवत रहें। फोटो खिचावत रहें। चारों ओर दबाव के माहौल। बन्धा पर नदी के दबाव। घेराईल मनई के जान बचावला के दबाव। खबरीलाल लोग का खबर के दबाव। बाबा का अपनी चांद निहारला के चिंता रहे। हाफ़त- डाफत-पांकत कवनो ना घरे पहुंचले। पंडिताइन चलनी से चांद निहारला की बाद बाबा के चेहरा देख चवन्नी मुश्की मारत मुहें में मिठाई हूर दिहली। बाबा पगुरी करत करवा के पानी पंडिताइन के पीया के पुछलें-जुड़ईलू। मुहल्ला में जोर से शोर हो गइल। भगिहे रे! सरयू मईया के धार एनिये आवत बा।

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।।

रविवार, 2 अक्तूबर 2022

भोजपुरी व्यंग्य: 4 सितम्बर22

ले ल पोदीना, बुढौती में नगीना

हाल-बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पूछलें- बाबा ! का हाल बा? बाबा कहलें- हाल उहे बा, खाल उहे बा। जबसे सरकार बुढ़ऊ पत्रकार लोग के पेंशन देबे के घोषणा कइलसि, जमीनी पर पैरे नईखे। सब बेमारी दूर। जवानी छलकत बा। नवहा खबर नबिश भी दईब के गोहरावत हवें, हमहुँ जल्दी बुढा जईतीं त हमरो मुट्ठा-खांड भेटा जाइत। असल, दरअसल, किंतु, परन्तु, बल्कि, लेकिन..सब भुला के सरकार के सौ-सौ धन्यवाद देता। आजादी की बाद पहली बेर कवनो सरकार आईल, जवन निरीह प्राणी, चौबीस घण्टा के सूचना खुरपेचिया, बिना तनख्वाह के नौकर के भी भरण-पोषण, गुजर-बसर के चिंता कइलसि। आखिर एगो पत्रकार के और का चाहीं? जिन्नगीभर समाज के व्याप्त बुराई आ भ्रष्टाचार की खिलाफ जंग लड़त समाज से दुश्मनी ही त कमईलें। सामने की सम्मान से बड़वर त पीठ पीछे के अपमान ही कमईलें। लोकतंत्र के चौथा खम्हा कहइलें लेकिन कवनो सरकार इनकी बारे में ना सोचलस। अब सरकार सोचलसि त मुसरन ढोल बजावत हवें। बजा ल भईया। अभिन पेड़ पर कटहल बा, मुंह में तेल लगा के बईठल रहीं। ना जाने कब कोआ खाएके मिली। घोषणा जेतना सुघ्घर लउकत बा ओतने टेढ़ बा। ना चलनी में पानी आई, ना आटा सनाई। नियमवे एतना टेढ़ बा कि पूरा जवानी अगर सच के, ईमानदारी के, साहस के पत्रकारिता करत बुढाईल हईं त ख्याली पुलाव अगर भेटा गईल त अपना के धन्य समझीं। सन 82 से हमहुँ एही लाइन में हईं। चालीस साल से लिखत-पढ़त, खुरपेच करत 62 वर्ष के हो गइलीं। जवना संस्थान खातिर काम कइलीं ना उ मान्यता दिहलसि ना कवनो सरकार। हमरे समनवे जनमल चिंटू, पिंटू, गोलू जईसन कई जने के जिला से लेके राज्य स्तर तक के मान्यता मिल गईल। काहें कि ऊ केहू न केहू के पोछि पकड़ के सरकार के कृपापात्र हो गइलन। उनकी लगे जवन जोगाड़ रहे, हमरे लगे ना बा, ना होई। का रउरी लगे पांच साल लगातार जिला चाहे राज्य के मान्यता बा? नईखे, त काहें कूदत हईं। एतने योग्य रहितीं त मान्यता ना मिल गईल रहित। मान्यता लिहला के एगो अलगे योग्यता होला, जवन सब पत्रकार की लगे होइए ना सकेला।
दुसरका बात बा, अगर पांच साल वाली लगातार के मान्यता नईखे त 10 वर्ष तक श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 के प्रावधान की तहत श्रमजीवी पत्रकारिता कईले होईं। इहो सरग के जोन्ही जईसन बा। जवना संस्थान में रउरा लिखीं लें,उहे लिख के ना दीहें कि रउरा उनकी इहा लिखीं लें। मतलब साफ साबित हो जाई कि रउरा श्रमजीवी ना परजीवी हईं। अब तिसरका शर्त पर आईं। अगर वृद्ध भईला की बाद कहीं कहीं एको-दु बेर खाता में वृद्धा पेंशन के पांच सौ रुपया भुला भटक के आइल होई त चाहे लाख शपथपत्र लिख के देई रउरा अयोग्य ही कहाइब। जवना वृद्ध लोग के पूर्वांचल बैंक में खाता रहे उ बैंक बड़ौदा हो गइल। आ वृद्धा पेंशन अबो लटकल बा। अब आईं, आय पर। लेखपाल अगर ईमानदारी से राउर इनकम आंक दिहलसि त मिल भईल पेंशन। एतना कुल कागज पत्तर साते दिन में जुटा के जमा कईला की बाद रउरा भाग्यशाली होखब त पेंशन मिली। ना नौ मन तेल होई, ना राधा नचिहें। सबकर निचोड़ ई बा कि जे पत्रकार सरकार से लाभ पवले बा, उहे लाभान्वित होई। जे हरियरी देख के हहरल बा उ अबो हहरी। गोसाईं बाबा पहिलही लिख देले रहलें- सकल पदारथ एहि जग माही...।

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।

 

भोजपुरी व्यंग्य: 18 सितम्बर 22 को जनादेश में प्रकाशित

चारों ओर बा घेरले पानी
उनकी आंख के मरल न पानी

हाल-बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें- बाबा का हाल बा? बाबा बतवलें- हाल त बेहाल बा। जीव के जंजाल बा। दईं के लीला गजबे बा। सावन सुखार में बीत गईल। धान पानी बिन सूख गईल। कातिक नियराईल त इंद्र देवता का याद आईल की धरती पर पानियो बरसावे के बा। अईसन बरसा दिहलन की अब रबी के बुआई भी पिछुआई। ना खाल खेत निखरी न गेहूं बुआई। मतलब साफ बा, धान सूखा से गईल, त गेहूं पानी से। जमाना उल्टा हो गइल बा। प्रकृति कुपित बा। जवन जल जीवन रहे उहे जानलेवा हो गइल, अपनी राज में शुक के अईसन पानी गिरल की चौबीस जने के जान चलि गईल। चारों ओर पानी-पानी हो गइल, लेकिन उनकी नजर के पानी ना मरल। अईसन पानी भईल की शहर में पानी निकासी खातिर बनत नाला भी बह गईल। पानीदार प्रशासन के चेहरा कमीशनखोरी आ घटिया निर्माण से बेपानी हो गइल। ईमानदारी के ढोल पिटे वालन के पोल खुल गईल। विरोधी लोग चुल्लू भर पानी लेके खोजत हवें, आईं एहि में डूब मरीं। लोग पानी पी-पी गरिआवत बा। शरीफ मनई सुन-सुन के पानी-पानी हो जाता, लेकिन उनकी आंख के पानी नईखे मरत। जानत हईं काहें? ठेका-पट्टी के कमीशन देखते उनकी मुंह में पानी आ जाला। शहर से लेके नगर ले गन्दा पानी। गन्दा पानी निकासी पर लूट खसोट। रुकल-सड़ल पानी में भी अवसर तलासल गईल। कमाए वालन के नाला के सड़ल पानी, बजबजात गन्दा पानी, पाप से सराबोर पानी कवनो अमृत सरोवर चाहे गंगा जल से कम पवित्र ना लागेला। बीमारी से बचावे की नाम पर कागजे में छिड़काव कर के धन के प्यास बुझावल जाला। यत्र-तत्र पसरल पानी के बहुत कहानी बा। राजधानी से लेके घर की चुहानी ले पानी के कई रूप बा। मुफ्त के पानी अब पईसा वाला पानी बनके बोतलबंद पानी हो गइल। सरग में सालोसाल पियासल पुरखन खातिर पितृपक्ष में पानी नसीब होला। पूर्वजन के पानी पीया के तर्पण करीं। आपन पानी राखे के होखे त दुसरो के पानी के कदर कईल सीखीं। रहीम दास जी अनेरो नईखन कहलन- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून...।

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते।

भोजपुरी व्यंग्य : 2 अक्टूबर 22

मीठा-मीठा गप्प गप्प !!

हाल-बेहाल बा / एन डी देहाती

मनबोध मास्टर पुछलें -बाबा! का हाल बा? बाबा बतवलें-हाल त बेहाल बा। झूठ के बाजत गाल बा। दू बेर टकसला की बाद तीसरी बेर मंत्री जी के कार्यक्रम आखिर लागि गईल। जनता खुश। लागल सब सवंर जाई। अब भला जनता के कईसे समझावल जा कि सरकार कवनो होखे, असल किरदार अधिकारी होलन। सकल नचावत हैं अधिकारी...। मंत्री जी के गोशाला देखावे के होई त और जगह ना, गौरीबाजार जरूर ले जइहें। काहें, कि उ पहिलही से चकाचक बा। आंगनबाड़ी देखे के होखें त लवकनी बड़ले बा। मलिन बस्ती देखावे के होई त भटवलिया बा। अस्पताल देखे के होई त, तब ले जईहैं जब पर्ची बनल बन्द, मरीज के लाइन खत्म। मेडिकल कालेज जइहें, त डॉक्टरी पढ़े वाला लइके जयकारा लगईहे। ई ना बतइहें कि केतना दिन से छत के गन्दा पानी टँकी की जरिये पी के फिर भी हम्मन स्वस्थ्य हईं। सब देखला की बाद मंत्री जी आपन प्रवचन चालू करीहें- बजट के कवनो कमी नईखे। सब दवा उपलब्ध बा। ठीक बा ,सब दवा उपलब्ध बा त गेट पर दवाई के दुकान के कवन जरूरत बा। सब संसाधन आ योग्य डाक्टर लोग बड़ले बा, त काहें कवनो नर्सिंग होम में भीड़ काहें लागत बा। दरअसल सरकार जनता की प्रति जवाबदेह होखें न होखे, सत्ता में पुनरागमन के व्यवस्था पहिलही से मजबूत रखे ले। ना त सरकार बनावल आसान काम ह, आ न मंत्री बनल। सब गुणा गणित ह। सबके खुश करे खातिर कबो-कबो एगो मुख्यमंत्री की संगे दुगो उपमुख्यमंत्री बना दिहल जाला। चलेला केकर? अधिकारिन के। जवन अधिकारी जेतने तेज कनभरवा विधा में माहिर रही उ ओतने बड़वर कुर्सी पाई। पानी निकासी खातिर बनत नाला पानी में बह जाई, लेकिन सरकारी ढोल बजावे वाला सूचना विभाग पगुरी करत रही। कहीं कवनो खबर ना। कमीशनखोरी के करिया काम पर सोनहुला गलईचा बिछा के सबकुछ चकाचक देखा दिहल जाई। नया सोच के एतना गाना बजी की लोग की पाँव की मोच के दर्द भुला जाई। सद्व्यवहार की नदी से कुछ पत्रकारन के नहवा दिहल जाई। उ लिखल-पढ़ल छोड़ के जयकार में लाग जइहें। हर जिला में सरकारी डमरू बजावे वाला एगो करिश्माई अधिकारी रहेलन, जवन एकदम मीठा-मीठा अईसन बोलिहैं की सब झूठ गप्प हो जाई। साँच के टहाटह अँजोरिया अमौसा की दिने भी उगत दिखी। महिमामंडन की सरगम में झूमत अगर कवनो खबर पढ़े, सुने, देखे में स्वाद कसैला लागी त फट से आधारहीन आ तथ्य विहीन कहि के  खंडन बहादुर आपन धुधुका बजा दीहें। पत्रकार वार्ता बोलावल जाई। चाह-बिस्कुट खिआके, ज्ञान दिहल जाई। सकारात्मक बात कहल जा। नकारात्मक से ब्लड प्रेशर, शुगर सहित कई बीमारी बढ़ जाले। फिर प्रशंसाबाज आपन असल गति छोड़ के अधिकारिन की मति में आके सावन की अंधा जस हरिहर-हरियर देखे लगिहे। देश में जवाबदेह तंत्र कमजोर चलत बा। खुशामदी के मंत्र तेज असर करत बा। सरकार दिल खोल के लुटावत बा। जनता मुफ्त के राशन खा के डकारत भी नईखे। सब अच्छा बा। सब अच्छा बा। कहत मंत्री जी चल जइहें। हंसी त तब आईल, जब एगो दूसरे मंत्री जी के आदेश देखल गईल। मुअल मनई सरग से आके प्रस्ताव देत हवें , आ मंत्रीजी सड़क बनावे के आदेश देत हवें। 

पढ़ल करीं, रफ़्ते-रफ़्ते। फेरू मिलब अगिला हफ्ते


 


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