गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

जबसे आइल बा मनरेगा , खेतिहर मजदूर मिलल दुश्वार

मनबोध मास्टर बहुत परेशान भइलें। खेत में खाड़ पाकल-फूटल फसल खड़ा रहल, कटिया खातिर मजदूर ना मिले। अरे भया! मजूर कहां से मिली? सब हजूर हो गइलन। दिल्ली-मुंबई जाके खटिहें लेकिन गांव में खटला में शरम लागी। जबसे मनरेगा आइल बा खेतिहर मजदूर मिलल मुश्किल हो गइल। जब घर बइठले प्रधान जी की मेहरवानी से मजूरी मिल जायेके बा त खेते-खेते देहिं के दुदर्शा करावला के कवन जरूरत बा। एगो जमाना रहल जब चैत आवते खेते में भिनसारे से ही चूड़िन की खनक से सिवाना गुलजार हो जात रहल। लोग गावत रहलें- ‘ पाकि गइले गेहुंआ, लटक गइली बलिया , खनक रे गइली ना, गोरी के खेते-खेते चुड़िया खनक रे गइली ना.।’ कटिया की बाद महिना भर खलिहान गुलजार रहत रहे। मेंह में बुढ़वा बैल आ बछरु के दहिनवारी नांधि के दवंरी होत रहल। अंखइन से पैर कोड़त में ढोढ़ी गरम हो जात रहे। पुरुवा-पछुआ, उतरहीदखिन हीं की सहारे ओसवनी होत रहल। धरिया के रखल अनाज की ढेर पर बढ़ावन बाबा के पूजा के जमाना भी लद गइल। गांवन से बैल गायब हो गइलें। बैल ना रहलन त गोबर कहां मिली? गोबर ना त बढ़ावन कइसन? जांगर पेर के अनाज उगावल जात रहल तबो ‘ कट्ठा अवांसी, मंडा बोझ’
के ऊपज होत रहल। देश तरक्की कइलसि। तकनिक के खेती आइल। खेती-बारी के काम आसान भइल। येही बीच मनरेगा आइल। गांवन से खेतिहर मजदूर गायब हो गइलन। कटिया की सीजन में खेतन में हसुंआ हड़ताल। भला होखे कंबाइन आइल। पहिले त लोग येके यमराज कहत रहल, लेकिन अब बुझात बा इ धर्मराज बा। कंवाइन ना रहित त अन्न के दाना घरे ना आइत। देश बहुत तरक्की कइलसि, लेकिन अबहीन जरूरत बा कि जइसे कम दाम के कार आइल ओइसे कम दाम के ट्रैक्टर आ कंबाइन के भी जरूरत बा। कहे खातिर सब किसान के समर्थित सरकार बा लेकिन किसान हित के बात सोचे वाला के बा? डीजल पर सब्सिडी ना मिली। सीजन में थ्रेसरिंग खातिर बिजली भले ना मिली, खेते में आग लगावे खातिर जरूर आ जाई। उत्पादन की मामला में देश प्रगति कइलसि त उत्पादकता के कीमत भी लगे के चाहीं। उत्पादन त एतना बा की सरकार का गेहूं खरीदला में पूरा तंत्र के शक्ति लगावे के परत बा। गेंहूं के कटाई पर इ कविता-
जबसे आइल बा मनरेगा, खेतिहर मजदूर मिलल दुश्वार। 
कटिया दवंरी और ओसवनी, किसानी के बंटाढ़ार।। 
भला भइल की गांव-गांव में, कंवाइन बा आइल। 
 घंटा दु घंटा ही लागल, कोठिला में अन्न भराइल।।

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

जल संकोच विकल जस मीना ब्याकुल तस भये गुटखाहीना

जल संकोच विकल जस मीना ब्याकुल तस भये गुटखाहीना
मनबोध मास्टर माथा पीट लिहलन। हाय इ का भइल। गुटखा पर प्रतिबंध लाग गइल।गुटखा की रूप जाल में उषाकाल से निशाकाल तक फंसल जीव छटपटा के रहि गइल। जेकरा जीवन के प्रसाद ह गुटखा। जेकरा जीवन के आधार ह गुटखा। जेकर आचार-विचार-व्यवहार ह गुटखा ओकर बेचैनी वाजिब बा। तंबाकू चबाए वाला जीव के सूतत-जागत, उंघात-अलसात कहां ना रहल गुटखा। गुटखा चबाएवालन के प्यास में रहल। आसपास में रहल। सांस में रहल। आभास में रहल। रास में रहल। विकास में रहल। उजास में रहल। प्रकाश में रहल। अहसास में रहल। परिहास में रहल। उल्लास में रहल। बकवास में रहल। अब कानून बना के गुटखा रोकल जाता। उ गुटखा रोकल जाता जवना के र्चचा जन-जन की जुबान पर रहल। शहर से गांव तक फैलल गुटखा की लोकप्रियता के अंदाजा येह गीत से लगावल जा सकेला- ‘ खालू तिरंगा गोरिया हो फार के, जा झार के.. फेर अइहù अतवार के ..। ’ कहला के मतलब कि मरद त मरद, मेहरारू लोगन में भी गुटखा छवले रहल। गुटखा के बहुत लाभ लउकेला। हजूर की हाथ में जब गुटखा थमा के मजूर आपन जीवन धन्य करि लेला। अधिकारी की हाथ में गुटखा थमा के कर्मचारी करम कूटला से मुक्ति पा जाला। गुटखा खइला से बड़बड़इला के बेमारी कंट्रोल हो जाला। जब आदमी के बड़बड़ाइल कम होला तब ऊर्जा के बचत होला। आंतरिक ऊर्जा की बचत से सुख-शांति के अनुभव होला। येह लिए ही कहल जाला- येह गुटखा में बड़ बड़ गुन.। गुटखा खायेवाला जीव बगैर अभ्यास के ही चुपासन, चबासन, घुलासन, थुकासन आदि तमाम प्रकार के आसन के आनंद उठावेलन। सरकार की घोषणा की बाद प्रशासन हाथ-गोड़ धो के गुटखा की पीछे पड़ल बा। बोरा के बोरा चालान। जेइसे अबरा के मेहरारू गांव भर के भौजाई, जेही आवे हंसी-मजाक उड़ा ले। सब दौड़त बा गुटखा की पीछे। गुमटी से लेके ठेला वालन के चहेटउअल। ताबड़तोड छापामारी देख के मन में एगो विचार उठल। गांजा-भांग, चरस-अफीम पर त बड़वर कानून भी बनल बा-एनडीपीएस। एगो सवाल - का येह सब के प्रयोग करेवालन के कबो अकाल महसूस भइल बा? अनजान शहर में गइला की बाद भी ये सब के ठेहा मिल जाला। इ जरूर बा कि खुला में ना मिलेला। कानून से कवनो चीज की बिक्री पर व्यवधान लगावल जा सकेला, बंद ना करावल जा सकेला। गुटखा पर प्रतिबंध की खबर पर गोसाई महराज के चौपाई भी चेंज हो जाला- ‘ जल संकोच विकल जस मीना, ब्याकुल तस भये गुटखाहीना। सुखी जीव जो गुटखा अगाधा, जेब खचाखच वेतन आधा।’ आई सभे गुटखापुराण के कुछ कवित्त भी सुनल- समझल जा-
अन्न बिना उपवास भले, पुड़ियाहित दाम सदा कुछ फूंकत।
लाज बिसारि के , दांत चियारि के, हाथ पसारि मांगत नहीं चूकत।।
पाउच फारि के, मुंह में डारि के, घुलाय-घुलाय भीतरे ही बूकत।
घोल बनाय के, गाल फुलाय के, अन्त समय में पिच्च से थूकत।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्टीय सहारा के 4 /4 /13  के अंक में प्रकाशित है .
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