जल संकोच विकल जस मीना ब्याकुल तस भये गुटखाहीना
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मनबोध मास्टर माथा पीट लिहलन। हाय इ का भइल। गुटखा पर प्रतिबंध लाग गइल।गुटखा की रूप जाल में उषाकाल से निशाकाल तक फंसल जीव छटपटा के रहि गइल। जेकरा जीवन के प्रसाद ह गुटखा। जेकरा जीवन के आधार ह गुटखा। जेकर आचार-विचार-व्यवहार ह गुटखा ओकर बेचैनी वाजिब बा। तंबाकू चबाए वाला जीव के सूतत-जागत, उंघात-अलसात कहां ना रहल गुटखा। गुटखा चबाएवालन के प्यास में रहल। आसपास में रहल। सांस में रहल। आभास में रहल। रास में रहल। विकास में रहल। उजास में रहल। प्रकाश में रहल। अहसास में रहल। परिहास में रहल। उल्लास में रहल। बकवास में रहल। अब कानून बना के गुटखा रोकल जाता। उ गुटखा रोकल जाता जवना के र्चचा जन-जन की जुबान पर रहल। शहर से गांव तक फैलल गुटखा की लोकप्रियता के अंदाजा येह गीत से लगावल जा सकेला- ‘ खालू तिरंगा गोरिया हो फार के, जा झार के.. फेर अइहù अतवार के ..। ’ कहला के मतलब कि मरद त मरद, मेहरारू लोगन में भी गुटखा छवले रहल। गुटखा के बहुत लाभ लउकेला। हजूर की हाथ में जब गुटखा थमा के मजूर आपन जीवन धन्य करि लेला। अधिकारी की हाथ में गुटखा थमा के कर्मचारी करम कूटला से मुक्ति पा जाला। गुटखा खइला से बड़बड़इला के बेमारी कंट्रोल हो जाला। जब आदमी के बड़बड़ाइल कम होला तब ऊर्जा के बचत होला। आंतरिक ऊर्जा की बचत से सुख-शांति के अनुभव होला। येह लिए ही कहल जाला- येह गुटखा में बड़ बड़ गुन.। गुटखा खायेवाला जीव बगैर अभ्यास के ही चुपासन, चबासन, घुलासन, थुकासन आदि तमाम प्रकार के आसन के आनंद उठावेलन। सरकार की घोषणा की बाद प्रशासन हाथ-गोड़ धो के गुटखा की पीछे पड़ल बा। बोरा के बोरा चालान। जेइसे अबरा के मेहरारू गांव भर के भौजाई, जेही आवे हंसी-मजाक उड़ा ले। सब दौड़त बा गुटखा की पीछे। गुमटी से लेके ठेला वालन के चहेटउअल। ताबड़तोड छापामारी देख के मन में एगो विचार उठल। गांजा-भांग, चरस-अफीम पर त बड़वर कानून भी बनल बा-एनडीपीएस। एगो सवाल - का येह सब के प्रयोग करेवालन के कबो अकाल महसूस भइल बा? अनजान शहर में गइला की बाद भी ये सब के ठेहा मिल जाला। इ जरूर बा कि खुला में ना मिलेला। कानून से कवनो चीज की बिक्री पर व्यवधान लगावल जा सकेला, बंद ना करावल जा सकेला। गुटखा पर प्रतिबंध की खबर पर गोसाई महराज के चौपाई भी चेंज हो जाला- ‘ जल संकोच विकल जस मीना, ब्याकुल तस भये गुटखाहीना। सुखी जीव जो गुटखा अगाधा, जेब खचाखच वेतन आधा।’ आई सभे गुटखापुराण के कुछ कवित्त भी सुनल- समझल जा-
अन्न बिना उपवास भले, पुड़ियाहित दाम सदा कुछ फूंकत।
लाज बिसारि के , दांत चियारि के, हाथ पसारि मांगत नहीं चूकत।।
पाउच फारि के, मुंह में डारि के, घुलाय-घुलाय भीतरे ही बूकत।
घोल बनाय के, गाल फुलाय के, अन्त समय में पिच्च से थूकत।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्टीय सहारा के 4 /4 /13 के अंक में प्रकाशित है .
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गुरुवार, 4 अप्रैल 2013
जल संकोच विकल जस मीना ब्याकुल तस भये गुटखाहीना
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