शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

मन का रावण ना मरा क्या करेंगे राम..

दशहरा के एगो दूसर शाब्दिक अर्थ दश (रावण) हरा ( हरा-भरा) भी हो गइल बा। रामजी का करिहन ? जब लोग की मन में ही रावण समा गइल बा। विभीषण के चरित्र भी बदल गइल बा। अब उ रामजी के सही भेद ना बतावत हवें की रावण की नाभि में अमृत बा। रावण अपनी चतुराई से अमृत के जगह बदल देले बा। अब रामजी एक बाण मारे चाहें इकतीस वाण, रावण के कुछु बिगड़े वाला ना बा। का जमाना आ गइल बा। नाभि खोल के देखावला के चलन बढ़ गइल बा। सत्य सकुचात बा। झूठ मोटात बा। नैतिकता के पर्व के रूप में, न्याय की स्थापना में, विजय पर्व की याद में दशहरा मनावला के परंपरा शुरू भइल। येही दिन त रावण के वध भइल रहे। युगन से रावण दहन होत आवता लेकिन रावण जिंदा बा। देखला के दृष्टि चाहीं। दूसरे की दिल में ना अपने मन में झांक के देखीं। मन में रावण बैठल बा। मन के रावण मरला बगैर कागज-पटाखा की रावण के पुतला फूंकले ना शांति मिली ना संतुष्टि। प्रवृति आसुरी हो गइल बा। एगो सीता मइया की हरण में रावण साधु वेष बनवलसि। मौजूदा समय में साधु वेशधारिन के संख्या असंख्य बा। जे साधु वेश में ना बा ओकरो मन में रावण के माया राज करति बा। रावण त सीता मइया के खाली हरण कइलसि आज हरण की तुरंत बाद वरण आ ना मनला पर मरण तक पहुंचवला के स्थिति बा। रहल बात रामजी के त उंहा के अइसन राजनीति में घसीटल गइल की प्लास्टिक की पन्नी तरे गुजर होत बा। रामजी भले अभाव में गुजर करत हवें, रामजी की नाम पर कथा, प्रवचन, भजन, राजनीति करे वालन के नजर दौड़ाई। महल -अटारी,मोटर-गाड़ी, बैंक -बैलेंस, चेला- चपाटी के लाइन लागल बा। रावण के एगो रूप नवरात्र के आखिरी दिन देखे के मिलल जब कन्या भोज खातिर मनबोध मास्टर घर-घर लड़की तलाशत रहलें। कई घर छनला की बाद बहुत मुश्किल से 21 कन्या मिलली। दरअसल रावण की प्रभाव से एतना कन्या भ्रूण हत्या भइल की लड़की लोग के संख्या ही कम हो गइल। एकरा पीछे के कारण तलाशीं त साफ हो जाई की रावण के दुसरका रूप दहेज की आतंक से कन्या भ्रूण हत्या के संख्या बढ़त बा। आई असों की रामलीला में रावण दहन की पावन बेला में सौगंध खाइल जा की मन के रावण मार दिहल जाई। दहेज दानव के भगावल जाई। कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगावल जाई। अगर अइसन ना कइल जाई त रामजी रावण के वध ना क पइहन। आज इ कविता-
मन का रावण ना मरा, क्या करेंगे राम। 
विभीषण को कर रहे झूठ-मूठ बदनाम।। 
अब तो हर घर भेदिया, दे रहा जगत को भेद।
 जहां खजाना देखते वहीं लगाते सेंध।। 
प्रवृति आसुरी धारण किये, मना रहे हम पर्व। 
दूसरों को आहत करने में, महसूस करे रहे गर्व।।
 राम फंसे राजनीति में, गुजर प्लास्टिक तान। 
रामभक्तों की बढ़ रही, हवेल और मकान।।
-मेरा यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्‍ट्रीय सहारा के 17 /10/13 के अंक मे प्रकाशित है .

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