सत्ताइस अक्टूबर 2010 क दिन रहल। गोरखपुर बस स्टैंड, देवरिया बस स्टैंड पर कुछ माल उतरल। माल मतलब मिलावट क सामान। माल के मालिक केहु ना। माल कानपुर से गोरखपुर आ देवरिया वइसे ही पहुंचल। रोडवेज की कन्डक्टरन के महिमा अपार ह। पइसा पा जायं त गोला-बारूद पहुंचवा दें। तमकुही राज से दिल्ली तक गांजा पहुंचवला के बाति सुनले रहलीं। कंडक्टर नाम के जीव बहुत रिस्क लेलन। बिना टिकट के यात्रा करावल, यात्री के किराया अपनी जेब में घुसावल बहुत सुनले रहलीं। लेकिन सत्ताइस अक्टूबर के गोरखपुर की बस स्टैंड पर जवन नजारा लउकल उ कबो ना भुलाई। फूड इंसपेक्टरन के टीम बस स्टैंड पर छापा मरलसि। कानपुर से आइल चार बस की तलाशी में 20 कुंतल नकली खोवा, 15 कुंतल नकली बुनिया आ आठ कुंतल फफूंदी लागल मशरूम मिलल। एतना सामान मिलल लेकिन सामान के मालिक नदारद रहलन। खाद्य विभाग के लोग सामान नष्ट करा दिहलन। उ लोग अपनी कर्त्तव्य के इतिश्री क दीहलन। देवरिया बस स्टैंड पर भी कानपुर से आइल नकली खोवा आ हलुआ धराइल। माल धरात बा। माल मंगावेवाला मिलावटखोर ना धरात हवें। दरअसल येह तस्करी के पीछे रोडवेज के ड्राइवर आ कंडक्टर के हाथ बा। जब कानपुर से माल लोड होला त गत्ता (बंडल) के हिसाब से कंडक्टर के पइसा पहिलही पेमेंट हो जाला। बड़का मिलावटखोर मोबाइल से बस नंबर आ कंडक्टर के नाम छोटका मिलावटखोरन के बता दे लें। माल के उतारी एकरा खातिर बहुत साधारण तकनीक अपनावल जा ला। कंडक्टर के पहिले ही माल की मालिक के मोबाइल नंबर बतावल जा ला। जब कानपुर से बस गोरखपुर-देवरिया पहुंचेला त छोटका तस्कर बस के इर्द-गिर्द मेरड़ाए लागेलन। दहिने बायें-झांक-ताक के कन्डक्टर के मोबाइल पर घंटी मारेलन। कंडक्टर नंबर के मिलान क के माल सुपुर्द क देलें। येह पूरा खेल में तस्करी के काम कंडक्टर ही करेलन। प्रति खेप पांच सौ रुपया उपरवार कमाई की फेर में अइसन कंडक्टर मीठा जहर ही ना गोला-बारूद, गांजा-भांग भी पहुंचा दीहें। सवाल इ बा कि जब माल धराइल आ माल के मालिक ना मिलल त ड्राइवर-कंडक्टर पर मुकदमा काहें ना लिखाइल... सबका पीछे पइसा बा। इ पइसा ह। परिवहन विभाग का भी मीठ लागेला आ खाद्य विभाग त इही खातिर बनले बा।
एन डी देहाती
कागज पर वसूला जा रह रोडवेज बसों में लुट रहे मुसाफिर EOF14}
जवाब देंहटाएंउप्र राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों में मुसाफिर लुटते जा रहे हैं। सबकुछ जानते हुए भी निगम के आला अधिकारी प्रभारी कदम उठाने में अक्षम है। जागरूक मुसाफिर शिकायत भी दर्ज कराते हैं, लेकिन परिचालक के खिलाफ कार्रवाई का मामला ठंडे बस्ते में कैद हो जाता है। बीती रात लखनऊ से गोरखपुर आ रहे जागरूक मुसाफिर मधुलेश पांडेय के साथ भी इसी तरह की घटना हुई। परिचालक ने इलेक्ट्रानिक टिकट की जगह सादे कागज पर उनसे किराया वसूल लिया। बात यहीं खत्म नहीं होती, परिवहन निगम के शिकायत प्रकोष्ठ में शिकायत दर्ज कराने के बाद भी परिचालक के खिलाफ कार्रवाई की बजाय समझौते का प्रयास किया गया। अक्सर दिल्ली आदि लम्बी दूरी की बसों में इस तरह का मामला आम हो गया है। परिवहन निगम प्रबंधन अपनी माली हालत को सुदृढ़ करने में जहां नित नई योजना बनाने व उसके क्रियान्वयन में जुटा है, वहीं उसके परिचालक उसकी योजना का भट्ठा बैठाने में जुटे हैं। परिचालकों की अनियमितता पर रोक लगाने के लिए निगम प्रबंधन ने रोडवेज बसों में ईटीएम मशीन से इलेक्ट्रानिक टिकट बांटने की व्यवस्था लागू तो की है, लेकिन परिचालक मुसाफिरों को लुट रहे हैं। मशीन की खराबी का बहाना बनाकर परिचालक सादे कागज पर किराया वसूल कर अपनी जेब गरम करने में जुट गये हैं। बीती रात महानगर के सिंघड़िया मुहल्ला निवासी मधुलेश पांडेय के साथ ऐसा ही हुआ। गोरखपुर आने के लिए वह लखनऊ में देवरिया डिपो की बस ( यूपी 53 एटी-4074) में बैठे। परिचालक ने उन्हें एक सादे कागज पर लखनऊ से गोरखपुर का 189 रुपया किराया वसूल लिया। जागरूक मुसाफिर मधुलेश ने जब टिकट देखा तो हैरान रह गये। कागज पर किसी तरह का प्रिंट नहीं था। उन्होंने जब शिकायत दर्ज कराई तो परिचालक ने सफाई देते हुए कहा कि इलेक्ट्रानिक मशीन खराब है। ऐसे में पेन से लिखकर टिकट बनाना पड़ रहा है। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन व वीएमडब्लू टीम का सक्रिय सदस्य होने के नाते मधुलेश ने इस अनियमितता पर चुप बैठना उचित नहीं समझा और उन्होंने तत्काल परिवहन निगम के शिकायत प्रकोष्ट के टेलीफोन नंबर-18001802877 पर शिकायत दर्ज कराई। शिकायत प्रकोष्ठ पर बैठे अधिकारी ने मधुलेश के मोबाईल पर परिचालक से वार्ता की। शिकायत प्रकोष्ठ के निर्देश पर मुसाफिर को 00116302 नं. का टिकट जारी किया गया, लेकिन इसमें भी खेल हो गया। टिकट बाराबंकी से गोरखपुर तक का ही था और उस पर 164 रुपये प्रिंट थे। जागरूक मुसाफिर ने फिर शिकायत प्रकोष्ठ को सूचित किया तो अधिकारी का कहना था कि बस बाराबंकी पहुंच चुकी है। इस लिए टिकट वहीं से जारी होगा। मुसाफिर का कहना था कि जब टिकट बाराबंकी से बना है तो लखनऊ- बाराबंकी का किराया उसे आपस मिलना चाहिए ! शिकायत प्रकोष्ठ ने गोलमोल जवाब देते हुए कहा कि महज 25 रुपये का सवाल है। छोड़िए शिकायत क्या करेंगे ? वहीं परिचालक ने भी कहा कि रास्ते में कई अधिकारी मिलते हैं, जिन्हें खुश करना पड़ता है। बहरहाल इस वाकये से यह साबित होता है कि निगम मुख्यालयस्तर पर भी शिकायत दर्ज कराने का कोई मतलब नहीं है। ऐसे हालात में शिकायत प्रकोष्ठ का औचित्य क्या बनता है ?