शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

हम्मन के मजबूरी बा झोला छाप जरूरी बा

सरकार झोला छाप डाक्टर लोग पर नकेल कसति बा। मुकदमा लिखत बा। जेल भेजे के तैयारी करति बा। येह सब कार्रवाई से दुखित मनबोध मास्टर के कहनाम बा कि हम्मन खातिर झोला छाप ही भगवान हवें। हम्मन के मजबूरी बा। झोला छाप जरूरी बा। सरकार जगहे-जगह जवन सरकारी अस्पताल खोलले बा उ खुदे बेमार हो गइल बाड़न। सरकारी डाक्टर लोग अस्पताल में कम डेरा पर मरीज देखला में ज्यादा रुचि लेत हवें। जवन डाक्टर जेतने नामवर ओकरा आंगन में ओतने मरीजन के भीड़। कई जने डाक्टर लोग अस्पताल से तनख्वाह आ अपनी नर्सिग होम में मरीजन के सेवा करत हवें। जवले परिजनन की जेब में पइसा तबले सेवा। ओकरा बाद भगवान मालिक, मरीज मरों चाहे जीओ अपनी भाग्य से। शहर से सदर ले डाक्टरन के ऊंच हवेली देख के अंदाजा लगालीं । बेमारी जेतने भारी,डाक्टर के फीस ओतने भारी। डाक्टर लोग के तरह-तरह के नामकरण सुनि के मास्टर का बहुते दुख होला। कहलें- हम त डाक्टर लोग के भगवान के भाई समझत रहलीं लेकिन वाह रे! लोग, खूनचूसवा, कीडनीबेचवा, बच्चाबेचवा,अंखिफोड़वा, जनमरवा, जेबनोचवा..केतना नाम ध दीहलें। गांव-देहात में रात के जब केहू के कपरबथी, पेटगड़ी, दूनो पवन चली त झोला छाप डाक्टर लोग ही कामे आवेलन। गांव से कोस -दू कोस दूर सरकारी अस्पताल पर गइला पर अक्सर पता चलेला कि डाक्टर साहब शहर में अपनी नर्सिग होम पर चलि गइल हवें। कई जगह त चौकीदार चाहे सफाईकर्मी ही रात की बेरा एमरजेंसी के डय़ूटी निभा देलन। झोला छाप डाक्टर लोग के डिग्री डिप्लोमा जांच कइला की पहिले जव सिस्टम बेमार बा ओकर दवा होखे के चाहीं। रात में सीएचसी होखे चाहे पीएचसी डाक्टर लोग के रहल जरूरी कइल जा। दिन में डाक्टर लोग की केबिन में अंड़सल एमआर आ बहरा फर्श पर छटपटात बेमार के देखि के इहे लागेला कि इ व्यवस्था ही बेमार बा। सरकारी डाक्टर, सरकारी दवा यदि सवके सुलभ हो जाई त केहु का कुक्कुर ना कटले बा कि झोला छाप डाक्टर लोग से जेब कटवाई। करोड़न रूपया की लागत से निर्मित सरकारी अस्पताल डाक्टर बिना ‘ चौके के राड़ ’ अइसन लागेला। झोला छाप डाक्टर लोग पर होत कार्रवाई पर देखीं इ कविता केतना सधत बा-
 हम्मन के मजबूरी बा। झोला छाप जरूरी बा।। 
दुरुस्त करù पहिले व्यवस्था, तब कार्रवाई पूरी बा।। 
डाक्टर के कुरसी से बान्हù, अस्पताल में उनके छान्हù। 
तोहार व्यवस्था बेरमतिहा बा, ओकरा जड़इया-जूरी बा।।
 झोला छाप के छुट्टा छोड़ù, सरकारी के पगहा जोड़ù।
 बहुत अगर उत्पीड़न होई, त बाकी थुरा-थुरी बा।।

नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी  व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 12 जुलाई 2012 के  अंक मे प्रकाशित है । 

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