गुरुवार, 5 जुलाई 2012

मयभा सासु भइल मानसून, कंडा से पोछù आंसू-खून

अदरा आइल, गइल। आषाढ़ बीतल, सावन आइल। बदरा ना बरसल।मानसून की देरी से सभे परेशान हो गइल। पंडी जी के पतरा, पंडिताइन के अंचरा, मौसम विज्ञानी के भविष्यवाणी सजो फेल हो गइल। खेतन में धान के बेहन सूख गइल। पानी बिना हाहाकार मचि गइल। जीया-जंतु पानी बिना मरे लगलें। मानसून मयभा सासु अस सतावे लागल। खून के आंसू रोवे वाला किसान के सूखल कंडा से आंखि पोछले केतना राहत मिली। इंद्र देवता के प्रसन्न करे खातिर जगह-जगह टोटका शुरू हो गइल। बनारस में एगो नवही गंगा जी में नंगे नहइली लेकिन भगवान ना पसिजलें। गांवन में बाल- गोपाल लोग‘ काठ कठौती, पियर धोती, मेघा सारे पानी दे.’ की रट की साथे कीचड़-माटी में लोटाये लगलें। कीचड़ बनावे में भी लोगन के पसीना उतर गइल, ताल-तलैया, पोखरा-नाला सब झुराइले रहे। नलका से बाल्टी में पानी भरि के लोग-बाग अपनी दुआर पर गिरावे आ लक्ष्के ओहिमे लोटाके पानी मांगे। ब्रह्मबाबा की थाने अखंड कीर्तन होखे लागल। कालीमाई की थाने माई-बहिनी लोग छाक देबे लागल। रात में गांव-गांव ‘ हरपरौरी’ होखे लागल। मेहरारू लोग उघार-नांगट होके हर जोतला के स्वांग करे लगली। प्रधान जी के नाव लेके गरिआवे लगली, आ पानी मांगे लगली। मुड़ी निहुरवले प्रधान जी हरपरौरीवाली मेहरारून के पानी पियावे लगलें। मेहरारू गावल शुरू कù दिहली-‘ अंगना के खटिया दुआरे दहल जाले, उठù उठù हो प्रधान तोहार जोइया दहल जाली’। बुद्ध की बिहाने नहाधोके सुखारी बाबा लोटा के पानी लेके शंकर जी की थाने गइलें त शंकर जी गायब रहलें। पता चलल कि सुखरजिया काकी रतिये के शिवजी के उठा के, एकरंगा में बांधि के रसरी में लटकवले पानीवाला कुंआ खोजत रहे। गांव में कुंआ ना मिलल त मनबोध मास्टर की टय़ूबवेल की हौदा में शंकर जी के तर कù दिहली। सुखारी बाबा लोटा के पानी शंकरजी की बेदिये पर चढ़ा के सुखरजिया काकी के गरिआवत लौट अइलें। एतना टोटका की बादो पानी ना बरसल। अब तनीं रउरा सभे सोचीं। विज्ञान बहुत आगे बढ़ि गइल। चंद्रमा आ मंगल पर बस्ती बसावला के योजना चलत बा। मिसाइल की मामिला में आधा एशिया ले हमला करे के क्षमता हो गइल। लेकिन प्रकृति की रूठला पर मनावला के ब्यवस्था ना भइल। बुधवार की दिने जिनीवा में बड़े-बड़े वैज्ञानिक लोग ब्रह्मांड के रहस्य से पर्दा उठावला के दावा कइले। भइया कवनो ‘लग्गी-लग्गा’ के भी खोज कù दितन की असमाने की बदरी में खोदि दियाइत आ पानी बरस जाइत। बहरहाल, सब दई के लीला बा- ‘ हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस विधि हाथ..’। रूठल मानसून के मनावत में एगो कविता-
 मयभा सासु भइल मानसून। कंडा से पोंछù आंसू खून।। 
आइल जुलाई बितल जून। पानी ना गिरल एको बून।।
 दया करीं अब हे भगवान। होई जल्दी मेहर-वान।। 
 त्राहि-त्राहि मचल चहुंओर। रउरी आगे चले ना जोर।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी  व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 5 जुलाई 2012 के  अंक मे प्रकाशित है ।

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