मौसम के मिजाज भले कुंहासा की धुंध से भरल बा। लोग किकुरल बा, लेकिन परमोशन में आरक्षन की बात पर सियासत गरम बा। सूप त सूप अब चलनियो हंसति बा, जवना में बहत्तर गो छेद बा। नोकरी में आरक्षन की चलते मनबोध मास्टर पहिलहीं से दुखित रहलें, अब जबसे परमोशन में आरक्षन के बात सामने आइल त उनकर दुख दूना हो गइल बा। कहलें- हंस चुगिहे दाना-तिनका , अब कौवे मोती खाई..। बात कहब फरिछा, चाहे मीठ लागी चाहे मरीचा। एफडीआई की मसला पर सरकार के समर्थन देके ‘चाचा’ सीना फुलावत रहले। उनकर समाजवादी स्वरूप लोग पहिचान लिहल। जब परमोशन में आरक्षन के भांजा आइल त सरकार की सुर से अलगा सुर बना लिहलें। लोग बुझता, उनकर वोट बैंक बढ़ता। भगवावालन की साथे जीयत-मुअत रहे वाला सबरन लोग ठगा गइलन। अब कवना घाटे जांस, बड़ा असमंजस में जीव परल बा। सब माया के खेल बा। जवना दलित खातिर मैडम लड़ाकू भइल हई, ओके चुनाव में टिकट की बेर काहे ढकेल के पीछे क देली। सांच बात इ बा कि दलित समाज से ही जब केहू ऊंचकी कुरसी पर पहुंच जाला त उ दलित ना रहि जाला। उहो मनुवादी हो जाला। पांव छुअआवे लागे ला। बाबा साहेब कानून बनवले, तबसे बहुते दलित लोग के आरक्षन दियाइल। सुविधा दियाइल। गांवन में आके देखीं केतना सुधरल बा स्थिति। जे गांव छोड़ दिहल उ सुधरगइल। जे गांव में बा अबो दलित बा। असली आरक्षन के जरूरत जाति पर ना आर्थिक आधार पर होखे के चाहीं। कोटा में कोटा पर जे लंगोटा कस के लड़े के तैयार बा ओहु के आपन गुणा-गणित बा। एगो बात त बटले बा, योग्य आ प्रतिभाशाली लोग के रोक के कमजोर के बलशाली बनावे वाला नीति चली त इ अनीति ही कहल जाई। आरक्षन स्थायी समाधान ना हो सकेला। जरूरत येह बात के बा कि जे कमजोर बा ओके भोजन, आवास, शिक्षा, संसाधन देके मजबूत कइल जा। नोकरी पवला की बाद उ कमजोर ना बलजोर होई गइल हवें अब परमोशन की नाम पर काहे केहू के हक मारल जाई? मनबोध मास्टर के विचार से अपना के जोड़त हमार इहे कविता आज सधावल जाई-
मान बड़ाई देखकर, ‘सौदा’ कइले भाजपाय।
अब सबरन लोग का करे, कवना घाटे जाय।।
साई सजो आरक्षना, अब जाई दक्खिन टोल।
आरक्षन की चलते सबरन बनल रही ‘बकलोल’।।
‘प्रतिभा’ धंसि पाताल में, ‘कोटा’ उड़ी आकाश।
काहें जांगर पेरी केहू, खूब होई उपहास।।
चाह जाई चिंता जाई, ‘उ’ होइहन बेरपरवाह।
संगे के साथी ओहीजा रहिहें ‘उ’ होइहन शाहनशाह।।
रगरत रही सवर्ण सब, सुनी ना केहू टेर।
कोटा कारन ऊंचकी कुरसी, मिलत ना लागी देर।।
फरक ना लउकी अब कहीं, कौन सिंह को स्यार।
आरक्षन की कारने, जइहे अगली कतार।।
पांव के पनही उठ चली, कपारे ले चढ़ि जाय।
सिर के शोभा वाली टोपी, खूब जाय कचराय।।
सिसक जाइ काबिलियत, ठहाका जाति लगाय।
दफ्तर दफ्तर विद्वेष बढ़ी, कोटा आंख देखाय।।
- मेरा यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 20/12/12 के अंक में प्रकाशित है .
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