21 अक्टूबर 2013, करवा चौथ। सालो-साल गाल फुलवले, मुंह ओरमवले वाली मस्टराइन आज बिहाने-बिहाने से ही चहकत रहली। उनकर रूपजाल देख के मनबोध मास्टर सम्मोहित रहलें, रोमांचित रहलें, आनंदित रहलें। झुराइल जिनगी की रेगिस्तान में कुछ-कुछ हरियर लउके लागल। उषाकाल से अपरान्ह काल तक मस्टराइन के एक ही रट- ‘ ए जी! सुनत हई। संवकेरे घरे आ जाइब, आज करवा चौथ ह। चलनी में चांद निहारे के बा। राउर आरती उतारेके बा।’ मनबोध सोचे लगलें- अगर इ व्रत ना रहित त मस्टराइन के मधुरीबानी की जगह रोज सुने वाला कर्कश आवाज ही सुने के मिलत। आदमी के जीवन एगो पत्ता अइसन बा। क्षणिक सत्ता पर एतना गुमान रहत बा। मनई जीवन की डाल से लटकल बा। मोह-माया में भटकल बा। जेकरा पर पूरा जवानी कुर्बान क दिहल गइल, अभाव में ओकर स्वभाव बदल गइल।भला हो हमरी संस्कृति के, हमरी परंपरा के, पर्व-त्योहार के। इ प्रेम के उमंग बढ़ावत बा। जीवन में खुशबू महकावत बा। घरकच की करकच में रोज-रोज घटल नून-तेल-मरिचाई के चिंता से मुक्ति दिया के पूजा-पाठ-वंदन के उछाह बढ़ावत बा। इहे कुछ सोचते रहलें की मस्टराइन के फोन फेर आइल- ए जी! पौने आठ हो गइल। जल्दी आई , चनरमा उगहि वाला हवें। मास्टर जल्दी-जल्दी काम निबटा के घर खातिर निकल पड़लें। किक मारते बाइक किर्र., घिर्रर.फ्टाक. स्टाक . करे लागल। इ का आजुओ पेट्रोल टंकी वाला ससुरा पानी मिलवले बा का? गाड़ी आ देहिं दुनो गरमा गइल,घर के यात्रा शुरू भइल। यूनिवर्सिटी चौराहा पर पहुंचते फंस गइलें। दुर्गाजी के विदाई हो गइल रहे लेकिन बांस-बल्ली ओह-पोह के सड़क पर ही गिरल परल रहे। जवन जगह रहे ओमे एगो ट्रैक्टर-ट्राली भूसा लदले खड़ा रहे आ सामने हाथ पसरले सिपाही नो इंट्री के मोलभाव में लागल रहे। गाड़ी के तेल आ मास्टर के खून दुनो जरत रहे। उ बुदबुदात रहलें। सरकारी भिखारी, वर्दीधारी मंगन। दस रुपये खातिर चौराहा पर वर्दी नीलाम करत बा। कइसो व्ही पार्क की सामने पहुंचले त सड़क पर कबुरी करत कुछ गइया मइया आ कुश्ती लड़त नंदी महराज लोग। नगर निगम आ गो सदन वालन के कोसत मोहद्दीपुर चौराहा पर पहुंचले त सड़क पर आधा दर्जन आटो, ऊपर से नीचे ले मनई लदले लेकिन फिर भी ड्राइवर चिल्लात रहलें। जगदीशपुर., कुसुम्ही., मोतीराम, फुटहवां, चौरीचौरा। दहिने बाजू पुलिस के लगावल लोहे के वैरिकेडिंग आ आटो की बीच से कवनो ना निकरत रामगढ़ पुल तक पहुंचले की ब्रेक लगावे के परल। सड़क पर पी के टुन्न पड़ल मनई के देख के मास्टर चिल्लक्ष्लें। अरे ससुरा! मरे के बा त रमगढ़वा में कूद जो सड़किया काहें छेकले हवे। कूड़ाघाट के गुरुंग चौराहा के घोंचा-घोंची वाला मोड़ लांघत-धांगत, गिरधरगंज के सब्जी मार्केट के भीड़ आ ठेला-खोमचावालन के अतिक्रमण की बीच से निकरले त बुझलें की कवनो जंग जीत लिहलीं। सिंघड़िया की आगे दुर्गम मार्ग। लोग कहलें दिल्ली दूर बा अब त देवरिया दूर हो गइल। सड़क पर विकास के गंगा बहत रहे। चार महीना से जवना पानी के रोज लांघत रहले आज उहे पानी ‘पानी’ बिगाड़ दिहलसि। घिर्र-घिर्र क के गाड़ी बंद। जूता-मोजा-पतलून भीग गइल। ठेलत में नानी याद आवत रहली एही बीच महरानी के फोन आ गइल- कहां अझुरा गइलीं, चांद बुढ़ात बा। मास्टर रुआंसा होके कहलें-गाड़ी की इंजन में पानी समा गइल बा आज हम घरे ना पहुंच पाइब। एगो कविता याद आइल-
टीवी अखबार में समाचार बन रहल बा। जनप्रतिनिधियन के लोग धिक्कार रहल बा। एगो चांद नरक में गोता लगावत बा, घर पर एगो चांद इंतजार कर रहल बा।। |
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 24/10/13 के अंक मे प्रकाशित है .
दशहरा के एगो दूसर शाब्दिक अर्थ दश (रावण) हरा ( हरा-भरा) भी हो गइल बा। रामजी का करिहन ? जब लोग की मन में ही रावण समा गइल बा। विभीषण के चरित्र भी बदल गइल बा। अब उ रामजी के सही भेद ना बतावत हवें की रावण की नाभि में अमृत बा। रावण अपनी चतुराई से अमृत के जगह बदल देले बा। अब रामजी एक बाण मारे चाहें इकतीस वाण, रावण के कुछु बिगड़े वाला ना बा। का जमाना आ गइल बा। नाभि खोल के देखावला के चलन बढ़ गइल बा। सत्य सकुचात बा। झूठ मोटात बा। नैतिकता के पर्व के रूप में, न्याय की स्थापना में, विजय पर्व की याद में दशहरा मनावला के परंपरा शुरू भइल। येही दिन त रावण के वध भइल रहे। युगन से रावण दहन होत आवता लेकिन रावण जिंदा बा। देखला के दृष्टि चाहीं। दूसरे की दिल में ना अपने मन में झांक के देखीं। मन में रावण बैठल बा। मन के रावण मरला बगैर कागज-पटाखा की रावण के पुतला फूंकले ना शांति मिली ना संतुष्टि। प्रवृति आसुरी हो गइल बा। एगो सीता मइया की हरण में रावण साधु वेष बनवलसि। मौजूदा समय में साधु वेशधारिन के संख्या असंख्य बा। जे साधु वेश में ना बा ओकरो मन में रावण के माया राज करति बा। रावण त सीता मइया के खाली हरण कइलसि आज हरण की तुरंत बाद वरण आ ना मनला पर मरण तक पहुंचवला के स्थिति बा। रहल बात रामजी के त उंहा के अइसन राजनीति में घसीटल गइल की प्लास्टिक की पन्नी तरे गुजर होत बा। रामजी भले अभाव में गुजर करत हवें, रामजी की नाम पर कथा, प्रवचन, भजन, राजनीति करे वालन के नजर दौड़ाई। महल -अटारी,मोटर-गाड़ी, बैंक -बैलेंस, चेला- चपाटी के लाइन लागल बा। रावण के एगो रूप नवरात्र के आखिरी दिन देखे के मिलल जब कन्या भोज खातिर मनबोध मास्टर घर-घर लड़की तलाशत रहलें। कई घर छनला की बाद बहुत मुश्किल से 21 कन्या मिलली। दरअसल रावण की प्रभाव से एतना कन्या भ्रूण हत्या भइल की लड़की लोग के संख्या ही कम हो गइल। एकरा पीछे के कारण तलाशीं त साफ हो जाई की रावण के दुसरका रूप दहेज की आतंक से कन्या भ्रूण हत्या के संख्या बढ़त बा। आई असों की रामलीला में रावण दहन की पावन बेला में सौगंध खाइल जा की मन के रावण मार दिहल जाई। दहेज दानव के भगावल जाई। कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगावल जाई। अगर अइसन ना कइल जाई त रामजी रावण के वध ना क पइहन। आज इ कविता-
मन का रावण ना मरा, क्या करेंगे राम। विभीषण को कर रहे झूठ-मूठ बदनाम।। अब तो हर घर भेदिया, दे रहा जगत को भेद। जहां खजाना देखते वहीं लगाते सेंध।। प्रवृति आसुरी धारण किये, मना रहे हम पर्व। दूसरों को आहत करने में, महसूस करे रहे गर्व।। राम फंसे राजनीति में, गुजर प्लास्टिक तान। रामभक्तों की बढ़ रही, हवेल और मकान।। -मेरा यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 17 /10/13 के अंक मे प्रकाशित है . |
दो अक्टूबर। गांधी जी व शास्त्री
जी के जयंती के दिन। समूचा देश दूनों महापुरुषन के याद करत हवें। अइसने
प्रमुख दिन के ‘ श्मसान के संत’ इंसेफेलाइटिस के महामारी रोके बदे,
राम-जानकी मार्ग के दुर्दशा मेटावे खातिर आ बिजली के बेतहाशा कटौती रोके
खातिर पैदल मार्च निकरलें। पैदल चलल त स्वास्थ्य खातिर लाभदायक हइहे ह।
जनसेवा में पैदल चलला पर मेवा मिलेला। यात्रा त बहुत होत ह। एगो बाबा
मेडिकल कालेज से कलेक्ट्रेट तक पैदल मार्च कइलें तवले दुसरका बाबा पटनाघाट
से मार्च शुरु क दिहलें। सरकार की सेहत पर केतना प्रभाव पड़त बा? महामारी
मिटे न मिटे समर्थन त खूब मिलत बा। काल की कपाल पर, महाकाल की चौपाल पर,
जनता की हाल पर, आज की सवाल पर मनबोध मास्टर की दिमाग में कुछ परिदृश्य घूम
गइल। एगो ‘ कलम के पुजारी’ जब ‘ राम-जानकी मार्ग’ नाम से लेखनी
मथत रहे त राजनीति के मख्खन चखे लगल। समाजसेवा के व्रत ठनलस त मसान के
सूनसान ठेकान भी महान हो गइल। जगजगा उठल सरयू के घाट। दोहरीघाट पुल से जब
कवनो अजनवी जब भगवान भोलेशंकर के चालीस फुट ऊंच प्रतिमा देखत होइहन त इहे
कहत होइहन महाकालेश्वर के स्थल ह। मशान की महाकाल के जगावत समय में कलम के
पुजारी के वेश-भूषा , खान-पान, रहन-सहन, नीति-रीति सब बदल गइल। लंगोटिया
यार त ना कहब लेकिन कलमिया यार के जिंस उतर गइल। धोती धारण क लिहलन। कपार
से कैप उतर गइल, कत्ती ( कपड़ा के टुकड़ा) बंधाये लागल। दुपहिया ना जाने
कवना भुसौला में धरा गइल, की केहू के दान दिया गइल, अब त लग्जरी लउकत बा।
लिखता मनई वक्ता बन गइल। चिल्लूपार की जनता के चहेता बन गइल। सब कुछ बदल
गइल, लेकिन ‘ कलम के पुजारी’ से ‘ श्मसान के संत’ आ बाद में ‘
मंत्री जी’ आ मौजूदा समय में ‘ जागरूक जनप्रतिनिधि’ की तमाम यात्रा
में एगो चीज ना बदलल- ‘ यादाश्त’। मिलला के उहे भाव। ना कवनो घमंड ना
कवनो ऐंठन। जीवन की यात्रा में ‘ प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं’। लेकिन
श्मसान की संत का कइसन मद? जेकरा कर्मस्थली की घाट मुक्तिपथ पर केतना लोग
रोज खाक होता। इ सब प्रसंशा ना हकीकत ह। पद यात्रा में अपार जनसमर्थन मिलत
बा। सब के मुंह से इहे निकरत बा‘ श्मसान के संत तूने कर दिया कमाल’ ।
बिजली की बेतहाशा कटौती की सवाल पर, राम-जानकी मार्ग की चाल पर आ
इंसेफेलाइटिस की हाल पर बस इहे कविता-
‘ खूनचुसवों’ से जंग लड़ने चल
पड़ा जो।
जनसेवा के कठोर व्रत पर है अड़ा जो।।
जनसमर्थन की बदौलत रार ठाना।
श्मसान के मशान को जगा कर है खड़ा जो।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 3/10/13के अंक में प्रकाशित है
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