गुरुवार, 21 नवंबर 2013

भारत रत्न के महाभारत

भारत रत्न पर महाभारत जारी बा। मनबोध मास्टर महाभारत रत्न के मांग करत हवें। जबसे क्रिकेट के भगवान जी की बखरे भारत रत्न गइल। कई जने के पेट गुड़गुड़ाये लागल, कई जाने के उल्टी-दस्त शुरू हो गइल। बहुत बदहजमी, बहुत गैस, बहुत विकार। अरे भाई! खफा काहे होत हवù? सत्ता हमार, मर्जी हमार, रत्न हमार। हम जेके दे देई ,हमार मर्जी। रहल बात रत्न विवाद के त आदिकाल में जब समुद्र मंथन से 14 गो रत्न निकरल तबो विवाद भइल। उ विवाद देव आ दानव लोग की बीच के रहे आज मानव-मानव की बीच के बा। सचिन, सवा अरब हिंदुस्तानिन के निर्विवाद हृदय सम्राट हवें। सचिन महान हवें। क्रिकेट के भगवान हवें। नवहन के शान हवें। भारत के पहचान हवें। येह सबके बाद भी संन्यास लेबे की बेरा दिहल गइल सम्मान पर विवाद उठल बा। संन्यास के मतलबे होला देश-दुनिया, मोह-ममता, धन-दौलत, मान-अपमान, पद-प्रतिष्ठा आदि तमाम चीजन से विरक्ति के। सम्मान त कबो दिहल जा सकेला। कई लोग के मरणोपरांत भी मिलल। उ सरग से लेबे ना अइलें, परिजन ही पा के गदगदा गइलें। केतना रगरला की बाद भी लोग देश की सर्वोच्च सम्मान के हकदार ना बन पावेलन। बहुत दिनन ले पड़ल- पड़ल फाइल पर गर्दा के मोट पर्त पड़ जाला लेकिन अबकी चट मंगनी पट विआह हो गइल। सत्ता-शासन यदि संन्यास की समय सम्मान ना देत त शायद अइसन बात ना उठत। लगत बा भारत रत्न के राजनीतिकरण हो गइल बा। अगर राजनीतिकरण ना रहित त विवाद ना उठत। विवाद पहिला बेर भी ना उठल बा। पंडित भीमसेन, उस्ताद विस्मिल्ला खान, लता मंगेशकर, अमृत्य सेन, पंडित रविशंकर, एसएस सुब्बुलक्ष्मी, गुलजारी लाल नंदा, डा एपीजे अब्दुल कलाम, सत्यजीत राय, जहांगीर रतनजी दादा भाई टाटा, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, मोरार जी देसाई, सरदार वल्लभ भाई पटेल, राजीव गांधी, नेल्सन मंडेला, डा भीम राव अंबेडकर, खान अब्दुल गफ्फार, मदर टेरसा, वीवी गिरि, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, डा राजेंद्र प्रसाद, डा विधान चंद राय, गोविंद वल्लभ पंत, जवाहर लाल नेहरू, सर डाक्टर मोक्षगुंडम विश्वसरैया, सर्व पल्ली डा राधाकृष्णन, चंद्रशेखर बेंकेट रामन, चक्रवर्ती राजगोपाल चारी.. के भारत के सर्वोच्च सम्मान मिलल। लगता लाल बहादुर शास्त्री के छोड़ के हर वेर कुछ ना कुछ बात उठल। अबकी तनिका अधिका उठ गइल। सब कर आपन-आपन नजरिया। सचिन को सलाम। एक बेर ना हजार बेर। अब इ कविता -
 यदि काम का हो, तो चेहरा खिला-खिला दिखता है।
 किसी काम का नहीं, तो रोगी जस पीला दिखता है।।
 दोष चेहरे पर क्यूं , आंख के चश्मे पर लगाइए जनाब।
 कलमुंही राजनीति , कभी टाइट कभी नारा ढीला लगता है।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्‍ट्रीय सहारा के 21/11/13 के अंक मे प्रकाशित है .

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