उठहुं ये देव उठहुं सोवत भइले बड़ी देर..
देवोत्थानी एकादशी। देव के उठला के दिन। चार महीना से सोवल देव के जगावत इहे कहल गइल- उठहुं ये देव उठहुं, सोवत भइले बड़ी देर। एकादशी के दिन गन्ना के गांठ तोड़ला के परंपरा याद आइल। गांवन में कहल गइल- काहो भाई! ऊंख के गुल्ला फराइल? मनबोध मास्टर जब इ सवाल सुनलें त अतीत के पन्ना दिल-दिमाग में फरफरा के पलटे लागल। का जमाना रहे जब लोग कहे दस कट्ठा ऊंख बा , कवना बात के दुख बा। तब ऊंख खेत, ऊंखिहाड़, कोल्हुआड़ में मुफ्ते मिलत रहे। आज शहर में खरीदे गइलीं त चालीस रुपया जोड़ा। ऊंख की याद में बंसवारी तर के कोल्हुआड़ याद आ गइल। का जमाना रहे। कचरस, महिया, किकोरी,लवाही, भेली, पीड़िया आ चिटौरा..। आज की लक्ष्का त येह सबके नाम के अर्थ ना बुझिहें, स्वाद का बतइहें। बांस की सुपेली पर कराहा से गुरदम की सहारे निकालल गरमामरम महिया चेफुआ से चटला के स्वाद। गजब के टेस्ट। हमार पूर्वाचल चीनी के कटोरा कहल जात रहे। अंगरेजन की जमाना में 1903 में देवरिया जिला की प्रतापपुर में पहिलका चीनी मिल खुलल। समय आगे बढ़ल 1930 तक देवरिया जिला में 14 चीनी मिल लाग गइल। देश आजाद भइल। गन्ना आंदोलन की सहारे ही बहुत लोग लखनऊ-दिल्ली पहुंच गइलन। दिन-दशा खराब भइल। शासक लोग एका-एकी कर के मिल बेच दिहलन। अब गन्ना में ही ना क्षेत्र में ही कंडुआ, उकठा अइसन रोग लाग गइल। पूर्वाचल में दस लाख किसान गन्ना बोअत रहलें। अब गांव में खोजले दस मनई भी ना मिलत हवें जे ऊंख के सुख उठावत होंखे। ऊंख सामाजिकता- सामूहिकता के मिसाल रहे। खेत में गेड़ी गिरावला, गेंडसज, झोरला, सींचला, कटला, छीलला, पेरला, पकवला सब में सहयोग के मिठास रहे। ऊंख की सीजन में कोल्हू आ कराहा चाट के गांव के कुक्कुर भी पिलहठा हो जात रहलें। मसलन, ऊंख समृद्धि के फसल रहे। सब ओरा गइल। कालांतर में शंखासुर के मारि के युद्ध के थकान मिटावे खातिर देव क्षीरसागर में जाके सुत गइलें। आषाढ़ अंजोरिया की एकादशी के दिन से सुतल देव कार्तिक अंजोरिया की एकादशी के जगलें। देव के जगते गांव के लोग ऊंख के गुल्ला फारे लागल। शहर के लोग गन्ना के गांठ तोड़े लागल। अइसन सुअवसर पर एगो संकल्प लिहला के जरूरत बा- देव जाग गइलीं। हम्मन में देवत्व जगा दीं। जन- जन में प्रेम के प्रकाश फैला दीं। भ्रष्टाचार रूपी शंखासुर के वध कइल जाई, तब गन्ना के गांठ तोड़ला के पुण्य प्राप्त होई। अब इ कविता-
श्रीहरि विष्णुजी जग गइलें, अब रउरों जग जाई। शंखासुर की समर्थकन के, धरा से मार भगाई।। देवत्व के ज्योति जगा के, असुरत्व मेटाई। देव दीपावली की दीया से, अंधकार मिटाई।। - नर्व्देश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 14/11/13 के अंक मे प्रकाशित है |
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