गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

जेतने कपड़ा ओतने जाड़, जाड़ की मारे कांपे हाड़


हाड़ कंपा देत जाड़ में किकुरल कांपत- मनई के जिनगी खाड़ हो गइल बा। जाड़ के लेके बहुत कहावत कहल गइल। जइसे- ’लइकन के हम छुअब नाहीं, जवनका लगे जेठ भाई। बुढ़ऊ के हम छोड़ब नाहीं, चाहें केतनो ओढ़िहै रजाई‘। जाड़ से कांपत लोग भगवान के कइसे गोहरावेलन, एहु पर कहावत कहल गइल-’दई दई घाम करù, सुगवा सलाम करे, तोहरे बलकवा के जड़वत बा। पुअरा फूंकि-फूंकि तापत बा‘। जाड़ से बचे के उपाय भी पुरनिया लोग बतावल- रूई,धुईं या दुई। रूई के जे बहुत हल्लुक बुझत होखे उ मुगलता में ना रहो, रूई एतना भारी ह कि जाड़ के बाड़ के रूप में काम करेले। रूई के आशय गरम कपड़ा से भी बा। धुईं के मतलब अलाव, साधु-महात्मा के धुईं। आ दुई के मतलब त रउरा सभे बुझते होखब। जीवन की गाड़ी के दु पहिया- एगो मरद त दुसरका मेहरारू। मेहनतकश इंसान का कइसन ठंड। गांव-देहात में पटवन चलत बा। जाड़ से भले लोग के हाड़ कांपत होखे लेकिन जे खेते में हत्था लेके उतर गइल ओकरा केइसन जाड़। दस हत्था की बाद त पसीना निकल जाता। बिजली के दशा बाउरे बा। डीजल की मंहगी से किसानन के गरमी छिटक जाता। ऐही बीचे अगर केहु के पंपसेट ठंडाइल त अउर गरमी बढ़ जाई। जे गाय-भैस पलले बा ओकर गोबर- पानी करे में जाड़ देखल जाई त दूध की बेरा उ लात देखा दी। रोज कमा रोज खा वाला मनई की जिनगी में कइसन जाड़? कमाई तबे ना खाई। जेके जाड़ सताई उ त इहे दुहराई-’ना सौ बाघ ना एक माघ‘। जेकरा मेहनत मजूरी से पेट भरे के बा उ कही- ’आधा माघे कंबल कांधे‘। जाड़ा से लइकन के बचावे खातिर जिला के साहब फरमान सुनवलें कि स्कूल साढ़े नौ बजे खोलल जाव। सरकारी स्कूल में त साहब के फरमान लागू हो जाई लेकिन प्राइवेट वालन के हाल त गजबै बा। साते बजे घंटी बाजत बा। लइकन के तैयार करावल में महतारी लोग का आ स्कूल पहुंचवला में बाबुजी लोग का एह ठंड में परेशानी उठावे के परत बा। ओइसे भी जेकर लइका कान्वेंट में पढ़ी ओकर ठंड कमे लागी। पीठ पर एतना भारी बस्ता रही कि दनाइल रही। गार्जियन भी गरमाइल रहिहन कभी ड्रेस के लेके त कबो फीस के लेके। जाड़ा से कई जने के नाड़ा उकसि गइल बा। बुढ-पुरनिया पर एकर गहगर मार गिरत बा। कई जने असमये सरग सिधारत हवें। प्रशासन के घोषणा बा कि ठंड से केहु के ना मरे दिहल जाई लेकिन जवन खबर आवत हई ओहमा रोज ठंड से इतना मरे..। एही मुआवे वाली ठंड पर इ कविता-
जेतने कपड़ा ओतने जाड़। जाड़ की मारे कांपे हाड़।।
किकुरल कांपत जिनगी खाड़। सजो व्यवस्था चूल्हा भाड़।।
तपता मनई ढीला नाड़। फूंकत पुअरा उजरत बाड़।।
अइसन ठंड करेजा फाड़। मरि गये बुढ़ऊ घोठ उजाड़।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के १५ दिसंबर ११ के अंक में प्रकाशित है .

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