डांस बार के चांस मिली त, चढ़ि जा प्याला पर
प्याला।
बाल गर्ल्स की हाथ से पियले, बौराई पीयेवाला।
मस्ती छलकी मदिरा
छलकी, छक के पीये बदे मिली।
हर शहर में डांस बार हो, हर गली में मधुशाला।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 25 जुलाई 13 के अंक में प्रकाशित है .
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013
हमरो शहर में चाहीं $ डांस बार$
गुरुवार, 11 जुलाई 2013
रोवत हवें ऊंट, घूंट-घूंट मरला से, साहब काहें बदे हमका बचवलें
सड़त हवें। सुरक्षा में लागल सिपाही चौबिसों घंटा कुक्कुर, कौआ, सियार हंकला में लागल हवें। थाना परिसर में रहे वाला पुलिसकर्मिन के बीवी-बच्चा भी अगुता गइल हवें। सबका मुंह से बस इहे निकरत बा- ‘कवन जरूरी रहे इ बला पलला के’। दरअसल बात इ रहे कि कुछ तस्कर नाम के समाजसेवी लोग राजस्थान से चार ट्रकन पर लाद के 62 रेगिस्तानी जहाज(ऊंट) पश्चिम बंगाल की कत्लखाना में शहीद करावे ले जात रहलें। यूपी की पश्चिम से प्रवेश कराके पूर्वी मुहाना तक पहुंचावते धरा गइलें। सवाल इ बा कि भरतपुर (राजस्थान) से घुसला की बाद कुशीनगर(यूपी)में अइला की राह में दर्जनों जिला(आगरा, फिरोजाबाद, इटावा, औरया, अंबेडकरनगर, कानपुर, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद, बस्ती, संतकबीरनगर और गोरखपुर), सैकड़न पुलिस चौकी, बैरियर लांघत इ ऊंट अइसे ना आ गइल होइहन। गांव-देहात में एगो किस्सा कहल जाला- ‘ऊंट के चोरी, निहुरे-निहुरे?’ इ काम सीना ठोंक के, पैसा फेंक के भइल होई। पटहेरवा पुलिस कुछ ज्यादा कर्त्तव्यनिष्ठ निकल गइल। ईमानदारी में इ बेमारी बखरे पड़ि गइल। सेवा की बाद भी सात ऊंट सरग सिधार गइलें। पचपन ऊंट जवन बचल हवें, नरक भोगत हवें। देहिं सड़त बा, अंतड़ी जरत बा। कौआ नोचत हवें। ऊंट इहे सोचत हवें‘ कत्लखाना में त एके झटका में मुक्ति मिल गइल रहत, इहां तिल-तिल मरे के बा’। प्रशासन जागल बा। कोर्ट के आदेश आ गइल बा। जवन ऊंट बचल हवें उनके उनकी जन्मधरती (राजस्थान) में भेजला के उपक्रम जारी बा। देखल जा, कब ऊंटन के पटहेरवा थाना की नरक से मुक्ति मिली। ऊंट दुर्दशा पर एगो कविता-
भूसावाली गाड़िन पर , बाज अस झपट्टा देखलीं,
भरतपुर से कुशीनगर, ऊंट
कइसे आ गइलें।
यूपी की पश्चिम से गोरखपुर ले परमिट रहल?
कुशीनगर पार करत ,
कइसे धरा गइलें।
खेला बा अइसन खेलाड़िन की बखरा पड़ल,
कोर्ट आ कचहरी की
झंझट में अझुरइलें।
रोवत हवें ऊंट, घूंट-घूंट करके मरला से,
साहब काहे बड़े , हमका बचवलें।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 11 जुलाई 13 के अंक में प्रकाशित है .
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गुरुवार, 4 जुलाई 2013
जहां बसे तहं सुंदर देसू..
मनबोध मास्टर गांव के बीघा दु बीघा जमीन बेचकर गोरखपुर में डिसमिल दो डिसमिल जमीन का ले लिहलन बुझलें दिल्ली के चांदनी चौक खरीद लिहलीं। कर्जा-उआम लेके खलार में घर बनवा लिहलन। जब केहू हीत-नात पूछे की भइया गांव-जवार छोड़ दिहलù, गोरखपुर कइसन लागत बा? मास्टर गोसाई जी के चौपाई दोहरावत बस इहे कहें- जहां बसे तहं सुंदर देसू..। येही सुंदर देस में आषाढ़ में देवराज इन्द्र के कृपा गरगरा के बरसल। बुझाइल बादर फाट गइल। अबे नरही ताल के पेट ना भरल, रामगढ़ के जलकुंभी येहर-ओहर पानी की हिलकोरा से डोलत रहे कि कॉलोनी में बाढ़ आ गइल। सावन-भादो त बाकी बा अषढ़वे में दइब के कृपा लढ़ियन बरस गइल। बरखा आइल, गइल। जहां पानी ठाड़ गइल लोग के पानी बिगार के राखि दिहलसि। अब भगवान के दोष दिहल जाता, बहुत इफरात कृपा बरसा दिहलन। जलभराव के जायजा लेबे निकरल नेताजी अधिकारिन-कर्मचारिन पर बरस के जनता-जनार्दन के स्नेह बटोरला में लाग गइलें। अरे भाई!
सभासद तोहार। अध्यक्ष तोहार। ठेकेदार तोहार। लोग के काहे मूरख बनावत हवù। नगर की दुर्दशा पर एगो अधिकारी बेशर्मी भरल बयान हमरा हजम ना भइल, जब उ कहलसि- केहु नेवता देके बोलवले ना रहल की आके गड्ढा में घर बनवा ल। नेता की जनसेवा में भी अहंकार बा। उनकी सहानुभूति में भी विकार बा। उनकी घुड़की-धमकी में भी लाभ के लोभ बा। उनकर करनीध रनी सब सियासत के खेल बा। नगर के नाला की मुंहाने पर तोहार समर्थक जब हवेली खड़ा करत रहलें तू काहें ना रोकलù? कालोनाइजर्स लोग गड़ही-गड़हा, पोखरी-तालाब पाटि के कब्जा कर जमीन बेच के खरहरा लेके धन बटोरत रहलें त कुछ हिस्सा तोहरो इहां पहुंचत रहे। चुनाव में तोहार केतने चेला-चपाटी सभासद बन गइलें। विकास कार्य में कमीशन की मिशन में का तू सहभागी ना रहल। देवरिया जाये वाली सड़क पर येतना पानी चढ़ल की कार से हेलल मुश्किल हो गइल। बाह रे! बरखा के पानी। धनवान के मान के भी ख्याल ना रखलसि। बड़े-बड़े कॉलोनी में येतना पानी लागल की लोग की पैर के अंगुरी सरे लागल। गांव की डीह पर मड़ई डाल के रहे वाला लोग चैन से सुतत रहलें लेकिन शहर की पॉश कालोनी के लोग घर में समाइल पानी उदहला में रात-दिन गिन-गिन जगले बिता दिहलन। शहर की दुर्दशा पर एगो कविता -
सभासद तोहार। अध्यक्ष तोहार। ठेकेदार तोहार। लोग के काहे मूरख बनावत हवù। नगर की दुर्दशा पर एगो अधिकारी बेशर्मी भरल बयान हमरा हजम ना भइल, जब उ कहलसि- केहु नेवता देके बोलवले ना रहल की आके गड्ढा में घर बनवा ल। नेता की जनसेवा में भी अहंकार बा। उनकी सहानुभूति में भी विकार बा। उनकी घुड़की-धमकी में भी लाभ के लोभ बा। उनकर करनीध रनी सब सियासत के खेल बा। नगर के नाला की मुंहाने पर तोहार समर्थक जब हवेली खड़ा करत रहलें तू काहें ना रोकलù? कालोनाइजर्स लोग गड़ही-गड़हा, पोखरी-तालाब पाटि के कब्जा कर जमीन बेच के खरहरा लेके धन बटोरत रहलें त कुछ हिस्सा तोहरो इहां पहुंचत रहे। चुनाव में तोहार केतने चेला-चपाटी सभासद बन गइलें। विकास कार्य में कमीशन की मिशन में का तू सहभागी ना रहल। देवरिया जाये वाली सड़क पर येतना पानी चढ़ल की कार से हेलल मुश्किल हो गइल। बाह रे! बरखा के पानी। धनवान के मान के भी ख्याल ना रखलसि। बड़े-बड़े कॉलोनी में येतना पानी लागल की लोग की पैर के अंगुरी सरे लागल। गांव की डीह पर मड़ई डाल के रहे वाला लोग चैन से सुतत रहलें लेकिन शहर की पॉश कालोनी के लोग घर में समाइल पानी उदहला में रात-दिन गिन-गिन जगले बिता दिहलन। शहर की दुर्दशा पर एगो कविता -
बगैर सोच के शहर में बसलें, मिटल ना मन के पीर।
जलभराव दु:शासन होके, लगा उतारन चीर।।
जे घिरल बा जे बूड़ल बा, रहल करम के ठोंक।
नगर निगम आ नेता बुझै, झूठे रहल बा भौंक।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 4 जुलाई 13 के अंक में प्रकाशित है .
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