सभासद तोहार। अध्यक्ष तोहार। ठेकेदार तोहार। लोग के काहे मूरख बनावत हवù। नगर की दुर्दशा पर एगो अधिकारी बेशर्मी भरल बयान हमरा हजम ना भइल, जब उ कहलसि- केहु नेवता देके बोलवले ना रहल की आके गड्ढा में घर बनवा ल। नेता की जनसेवा में भी अहंकार बा। उनकी सहानुभूति में भी विकार बा। उनकी घुड़की-धमकी में भी लाभ के लोभ बा। उनकर करनीध रनी सब सियासत के खेल बा। नगर के नाला की मुंहाने पर तोहार समर्थक जब हवेली खड़ा करत रहलें तू काहें ना रोकलù? कालोनाइजर्स लोग गड़ही-गड़हा, पोखरी-तालाब पाटि के कब्जा कर जमीन बेच के खरहरा लेके धन बटोरत रहलें त कुछ हिस्सा तोहरो इहां पहुंचत रहे। चुनाव में तोहार केतने चेला-चपाटी सभासद बन गइलें। विकास कार्य में कमीशन की मिशन में का तू सहभागी ना रहल। देवरिया जाये वाली सड़क पर येतना पानी चढ़ल की कार से हेलल मुश्किल हो गइल। बाह रे! बरखा के पानी। धनवान के मान के भी ख्याल ना रखलसि। बड़े-बड़े कॉलोनी में येतना पानी लागल की लोग की पैर के अंगुरी सरे लागल। गांव की डीह पर मड़ई डाल के रहे वाला लोग चैन से सुतत रहलें लेकिन शहर की पॉश कालोनी के लोग घर में समाइल पानी उदहला में रात-दिन गिन-गिन जगले बिता दिहलन। शहर की दुर्दशा पर एगो कविता -
बगैर सोच के शहर में बसलें, मिटल ना मन के पीर।
जलभराव दु:शासन होके, लगा उतारन चीर।।
जे घिरल बा जे बूड़ल बा, रहल करम के ठोंक।
नगर निगम आ नेता बुझै, झूठे रहल बा भौंक।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 4 जुलाई 13 के अंक में प्रकाशित है .
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