चलि गइलें मोहन बिसारि के पिरितिया
आज सरयू उदास हई। बहुत उदास। सरयू की गोद में सदा खातिर समा गइलन समाजवादी चिंतक मोहन बाबू। बस रह गइल उनकर याद। गांव-जवार से बहुत प्रेम रहल। अब सबकी मुंह से इह निकरत बा- ‘चलि गइलें मोहन, बिसारि के पिरितिया’। जे आइल बा, उ जाई । इ सास्वत सत्य ह। कुछ लोग होलन जवन गइला की बाद भी याद रहेलन। मोहन बाबू भी अइसने रहलन। मनबोध मास्टर की जेहन में मोहन बाबू के गइला के दुख चस्पा बा। बड़ा करीब से मोहन बाबू के नीति-रीति देखल गइल रहे। आज सियासत के अलम्बरदार अर्थी के कन्धा देत हवे। इ खाली फर्जअदायगी ना ह। बहुत कुछ सोचे-समझे के भी मौका देत बा। केतना ऊंच बा अर्थी आ केतना नीचे बा कन्धा। तस्वीर त सांच ही बोलति बा। उमड़त जनसैलाब, टूटत दलीय सीमा आ चारों ओर मोहन बाबू के जय-जयकार। सियासत में चाल-चरित्र-चेहरा के बात कइल जा त छात्र जीवन से ही राजनीति में कूदल सामाजिक पहुरुआ अंत समय तक समाजवादी ही रह गइल। जवना विचारधारा के डोर जवानी में धराइल बुढ़ारी तक ओही के धइले रहि गइलें। धीर-गंभीर, बात- बेबाक, चिंतन-मंथन, लोकप्रिय-जनप्रिय, विनम्र- कुशाग्र सब विश्लेषण मोहन बाबू से जुड़ल लउकेला। सब की बाद भी उ एगो नेक इंसान रहलन, इंसानियत कूट-कूट के भरल रहे जवन नेतागीरी में कमे पावल जाला। जे उनकी लेखन के मुरीद रहे उनकी चेहरा में ओकरा नेता कम लेखक, साहित्यकार, पत्रकार के अक्स ज्यादा ही लउकत रहे। मोहन बाबू से जुड़ल कुछ स्मृति रउरा सभ से साझा क के दुख के बोझ कुछ हल्लुक कइल चाहत हई। मोहन सिंह बहुत धीर- गंभीर नेता रहलन। तीन गो घटनाक्रम बतावत हई जवना पर मोहन बाबू बहुत हंसले रहलें, आ का कहले रहलें, उहो याद बा। 1989 की विधान सभा चुनाव में बरहज से मोहन बाबू चुनाव लड़त रहलें। हमरे गांव में प्रचार करे आइल रहलें। गांव में यादव जी लोग के दुआरि पर बांस की पुलुइ पर निर्दल प्रत्याशी के चुनाव चिन्ह सायकिल ( तब सपा के जन्म ना भइल रहे) बान्हल देख के कहले- ‘ जतिगो ज्यादा होता का? लगता अब जातिवाद की ही भरोसे लोग राजनीतिक वैतरनी पार करी।’ मोहन बाबू के बात सच साबित भइल आ समाजवाद के परंपरागत वोट निर्दल प्रत्याशी की ओर खिसक गइल आ मोहन बाबू चुनाव हार गइलन। 1996 में सलेमपुर से संसदीय सीट खातिर पर्चा भरलन। बहुत विरोध भइल। बाद में मोहन बाबू के टिकट कट गइल आ सहाय जी के टिकट मिलल त कहले रहलन- ‘ पार्टी में अंदरुनी लोकतंत्र जिंदा बा।’ 2009 में देवरिया से संसदीय सीट के चुनाव लड़त रहलन। जनता के रुझान बसपा प्रत्याशी की ओर बढ़ल जात रहे। मोहन बाबू से फोन पर पूछलीं- नेता जी ! राउर का पोजिशन बा? मोहन बाबू कहलें-‘ प्रत्याशी टिकट खरीद के ले आइल बा, अब वोट खरीदत बा। अइसन खरीद-फरोख्त में हमार पोजिशन ठीक ना बा।’ इ तीन बेर के तीन बात आज की राजनीति पर बहुत कुछ सोचे समझे आ बतकुचन करे खातिर काफी बा। अपनी येही शब्दन से मोहन बाबू के श्रद्धांजलि देत इ कविता-
रुष्ट होके भी कभी, दल से नाता ना तोड़ा। राह में आई मुश्किल बहुत, मंजिल से मुंह ना मोड़ा।। सियासत की चाल ऐसी है, लोग बदल जाते हैं चंद लम्हों में। मोहन ने ताउम्र कभी समाजवादी विचारधारा ना छोड़ा। -नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 26/9/13 के अंक मे प्रकाशित है . |
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