शुक्रवार, 21 मार्च 2014

बांटत टिकट, विकट विरोधा..

मनबोध मास्टर के सियासी फगुआ लगता बुढ़वा मंगल की बाद ले चली। नेतन के टिकट कटले पर अइसे बुझात बा जेइसे नटई कटा गइल। सेवा की मेवा से वंचित नेता टिकट कटते किटकिटा के दांत पीसत अपने पार्टी की अध्यक्ष के कच्चे चबा जाये वाला नजरिया से खूब पुतलादाह करावत हवें। हाल उ बा जइसे- ‘ बांटत टिकट, विकट विरोधा। अपने दल पर, करते क्रोधा।’ कुछ लोग अइसन समय पर पाला बदलल जइसे सरसई धरत आलू पर पाला, लहलहात सरसों पर लाही आ किकोरा पकड़त आम पर किकुरा। होली के खुमारी उतर गइल, चुनाव के चढ़ गइल। देवरिया में दु लोग की लड़ाई में तीसरा का लहि गइल। एक जने त चुप बाड़न लेकिन दुसरका जने अपनी लोगन से खूब खुराफात करावत हवें, अपने ही अध्यक्ष जी के पुतला फुंकवावत बाड़न। अध्यक्ष जी के मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करावत हवें। सलेमपुर में समाजवादीपुत्र के भाजपाई टिकट पर सब खुश बा। चौदह साल में रामजी वन से लौटल रहलें, एइजा चौबीस साल में भाजपा लौटलि बा चुनाव लड़े। डुमरियागंज में जिनगी भर कांग्रेस के सेवा करे वाला पाल का मलाल रहे कि उनकी हैसियत की हिसाब से पार्टी में जगह ना मिलल। उनहुं की दिल में कमल खिलल। जबले टिकट नइखे कटत तबतक पार्टी से निष्ठा, आ टिकट कटते अपने दल बन जाता विष्ठा। इ कलमुंही राजनीति जवन ना करा दे। जवन महतारी अपनी पुत्तुर की विवाह के निमंत्रणपत्र छपवावे में भी देर करत हई, उहे पार्टी के घोषणापत्र थमा के गली-गली दौड़ावत हई। बेटा के सीएम, बहू के पीएम, भाई के मनिस्टर बनववला की बाद भी संतोष नइखे। कुनबा में केहू बेरोजगार ना रहे एकरा खातिर आजमगढ़ के जमीन जोत-हेंगा के रफारफ करे खातिर आवत हवें। आई, राउर स्वागत बा। समाजवाद के झंडा लहराईं, परिवारवाद के आगे बढ़ाई।

अब कुछ सियासी छंद - 
दिल्ली में दिल ना लगा, अब करेंगे काशीवास।
 खेल बिगाड़ने जो आये, हो उसका सत्यानाश।। 
दो-दो जगह से जो लड़े, जीत के छोड़े सीट। 
ऐसे जीव को क्या कहें, राजनीति के कीट।।

-- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 20 /3 /14  के अंक में प्रकाशित है।

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