मनाइब। मस्टराइन पूछली- काहें? उ कहलें- सूर्पनखा की नाक की चलते। बात सही बा। जहां-जहां गड़बड़ बा, बूझीं सूर्पनखा के नाक फंसल बा। हम्मन की प्रेम के, स्नेह के, आत्मीयता के, सहयोग के, सहानुभूति के, उपकार के, उदारता के, देशभक्ति के कवन सिला मिलल? सत्य के सूरज अस्त ना भइल बा, कुछ बादल की टुकड़ा की घेरले अंधकार ना हो जाई। जल्दी ही सब कुछ साफ हो जाई। जनता बुझति बा, समझति बा। इ प्रजातंत्र ह। सिस्टम में कुछ दोष आइल बा। व्यवस्था डंडीमार भइलि बा। धिक्कार बा अइसन अधिकार के जवना के नाहक प्रयोग कइल जाता। प्रजातंत्र की पेड़ पर कोयल ना अब कौआ किलोल करत हवें। चारों ओर चमगादड़के बोल सुनात बा। न्याय आ अन्याय के अंतर बस एतने रहि गइल बा- ‘जेकर लाठी ओकर भैंस’। बेकारी, बेमारी, बेरोजगारी आ भुखमरी की बीच घनघोर महंगाई में आदमी जीयत बा। बेर-बेर, कई बेर उहे फाटल पेवल सीयत बा। केतना सुग्घर रहे आपन देश भारत। हिंदुस्तान कहल जाता लेकिन हिंदी आ स्वदेशी से परहेज कर के अंगरेजी आ विदेशी से मोहब्बत करे वाला भी कम ना हवें। विदेशी के चेहरा गोर लउकत बा, हृदय में झांक के देखीं केतना काला बा। सूरत पर गइला के जरूरत ना बा। रामायण काल में भी सुंदरता की चलते बहुत भ्रमजाल फैलावल गइल। तब भी बहुत दिक्कत भइल, आज भी दिक्कत बा। बहरहाल! सूर्पनखा के नाक ना रहित त ‘रामजी’ के पुरुषार्थ के कथा रामायण बन के हम्मन के बीच कइसे आइत। रामचरित मानस लोग कइसे गाइत। सूर्पनखा के नाक ना रहित त राम-रावन युद्ध ना होइत आ अंत में रावन ना मराइत। नककटैया के लीला, रामलीला में बहुत प्रसिद्ध भइल। आज फिर जरूरत बा नकटी के नाक काट के, नकेल डाल के, नथूना ठेंका दीं। काहें की सूर्पनखा सिंबल ह राक्षसी प्रवृति के। मनुष्यता के बचावे खातिर संकल्प करीं, उठा लीं हथियार आ काट दीं सूर्पनखा के नाक। ‘ ना रही बांस ना बाजीबंसुरी’। अब ये कविता के अर्थ निकालीं। अर्थ के अनर्थ जनि करब, नाहीं त सजो मेहनत व्यर्थ चलि जाई।
‘सूर्पनखा’ की नाक की चलते, ‘देशभक्त’ का मान नहीं।
बिक गया ‘वो’ किसके हाथों, करता क्यूं सम्मान नहीं।।
योगदान को भूल गया क्यूं, मद में ऐसा वर्ताव किया।
अधिकार का दुरुपयोग कर, अतिवादी व्यवहार किया।।
-- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 13 /3 /14 के अंक में प्रकाशित है।
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गुरुवार, 13 मार्च 2014
‘सूर्पनखा’ की नाक की चलते..
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