मनबोध मास्टर का बहुत कोफ्त बा। लहर पर कहर बन के कलह गिरल बा। कलह के भी
कारण होला। जब एगो अनार रही आ सौ जने बीमार रहिहन त इहे होई। कबो-कबो त लहर
उठेला। सत्तहत्तर में उठल रहे। सैंतीस साल बाद फिर उठल बा। लहर त बा लेकिन
चुनाव पहिले ही कलह भी कम नेइखे। सत्तहत्तर में अइसन कलह चुनाव पहिले ना
रहे भले बहत्तर चोंप पर खड़ा तंबू चुनाव की कुछ दिन बाद भहराइल। इ लोकतंत्र
के तकाजा ह। सेवा खातिर टिकट मांगल जाता। जीतते मेवा खाइल शुरू। चुनाव की
पहिले जनसेवक आ जीतला की बाद लोकतंत्र के राजा। विरोध के बाजा अनासो ना
बाजत बा। ‘नाथ जी’ कई जने के ‘बे-नाथ’ बनावला पर लागल हवें। नाराजी के दौर,
नया-नया ठौर। उल्टी गंगा बहावल जाता। बनारस वाला के कानपुर में पटकल जाता।
गाजीपुर वाला देवरिया उतारल जाता। डुमरियागंज में पल्टीमार पर तकरार।
इलाहाबाद में केशरी त अयोध्या में कटियार कुपित। बस्ती ना मिलले वेदांती
लाल-पीयर। लखनऊ से टंडन टकसा दिहल गइलन। जौनपुर में अनुराग के राग बदल गइल।
आडवाणी, जोशी, जसवंत, सुषमा, चिन्मया, लालमुनी चौबे, सुभाष महारिया,
महादीपक शाक्य, शाही, जनरल, जिप्पी, जयप्रताप..। लमहर फेहरिस्त बा। ‘ नाथ
जी’ से बसा एगो सवाल- इ लोग पार्टी के वफादार स्तंभ ना ह? घर के जोगी जोगना
आन गांव के सिद्ध। संघर्ष, सेवा, निष्ठा के महत्वहीन बना के पल्टीमारन पर
विश्वास। एहीसे होता सत्यानाश। अन्जाम का होई? आगाज में अनुशासन तार-तार ।
अनुशासित कहाये वाली पार्टी में नाराज कार्यकत्र्ता अध्यक्ष जी के पुतला
फूंकत हवें, मुर्दाबाद के नारा लगावत हवें। असली-नकली के द्वंद्व उठल बा।
पार्टी के केतना फायदा पहुंची? जनसेवा, समाजसेवा आ राष्ट्रसेवा खातिर ही
यदि नेतागिरी बा त स्वहित छोड़ के जनहित, पार्टीहित, समाजहित आ राष्ट्रहित
की बारे में सोचल जा। राजनीति की धुआं-धुक्कुनधुंध में अपना-पराया के
पहिचान मिट गइल बा। ‘नाथ जी’ की चलते ही ‘महराज जी’ के भी पुतला फुंकाइल,
मुर्दाबाद के नारा लागल। इ कम क्षोभ के बात ना बा। समय रहते स्थिति ना
सम्हरायी त निरादर आ अपमान की आग में बहुत नुकसान होई। बहुत लोग से पुछलीं-
भइया! पार्टी के कवन रोग धइले बा? जवन जवाब मिलल, उ दु लाइन में-
ओझा-सोखा, वैद्य-तांत्रिक, बात कहें सब धांसू।
पार्टी के ‘पछेड़’ करत बा,
धइले बा बहरबांसू।।
- मेरा यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 27 /3 /14 के अंक में प्रकाशित है।
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