गुरुवार, 10 नवंबर 2011

हमरा सिर पर चढ़ल बा कातिक, तोहरा गहना सुझता

कातिक के भीड़ चलता। असो हथिया की ना बरसला से रबी के बुआई के खर्चा बढ़ि गइल बा। डीजल की महंगी से खेत ‘चिरई नहान’ पाटि जाउ उहे ज्यादा बा। गांवन में सरकार एतना बिजली भेज देति बा कि टय़ूबवेल चालू क के खेत में पहुंच तबले लाइन गोल। अइसन लाइन से खेत भला केइसे गहगर पाटी? बिजुलिया त लखनऊ की अंबेडकर पार्क में भेजा गइलि बा। जहां बाबा साहब, मान्यवर साहब आ मैडम के मूर्ति पर उजियार कइल जाता। देश के तरक्की त पत्थरे पर अंजोर कइले से न होई। किसान का लाइन-ओइन के कवन जरूरत बा। जेकरा निजी पंपसेट बा ओहु के खर्चा साठ रुपया घंटा पड़ि जाता। दूसरा से चलवलवा पर सवा सौ रुपया पड़ता। एक घंटा में मुश्किल से तीन कट्ठा खेत पाटत बा। जेकरा बाप दादा के दस बीघा जमीन बा, ओकरा माटिये पटावला में माटी लागि जाई। कर्जा-उआम से खेत पाटि जाय त जोताई के जोगाड़। छहावन, चास, सोमरा, तिखरा, मिलवट, हेंगावन.। येही से कहल गइल-‘तेरह कातिक तीन आषाढ़’। बैल बिका गइलन, सब टेक्टरवे से जोतवाई। जोतवावते में उखड़ जइहन। ओकरा बाद खाद-बीया के जोगाड़। सरकार भरपूर व्यवस्था कइले बा। दस बीघा खेत खातिर किसान बही पर दो बोरी डीएपी, दो बोरी बीया। खेत बोआई कि सूंघल जाई। सरकारी गोदामन से खाद-बीया उठावत में नानी याद आ जइहन। गजब व्यवस्था बा, गेहूं पैदा करी किसान आ बीया बेंची सरकार। बैल-गोरू ना रखला से कंपोस्ट के जमाना लदि गइल। अंगरेजी खाद की महंगी से किसानन के कमर टूटत बा। जवन डाई पिछला साल छह सौ ले मिलल उ असो नौ सौ में मिलत बा। अब त डाई के नाम सुनते बाई ध लेता। किसान पर जेतना भीर बा ओतना केहु पर ना होई। लाठी-लुठी खात कवनो ना खेत बोआई त एकइसवे दिन फिर पनिहट के झंझट। अगर एही बीचे केहु के मेहरी कवनो गहना गढ़ावे के कही दी, त उ कहवे करिहन- हमरा कातिक ना बोआइल तोहरा गहना सुझता। पहिले की जमाना में घाघ कवि कहि गइलें-‘ उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भीख निदान’। अब की जमाना में खेती के जे उत्तम बतावे उनके जोतला पलिहर में दस बीघा खाद-बीया छिटवा द ठीक हो जइहन। जवना नोकरी-चाकरी के घाघ जी निषिद्ध कइलन ओही में मजा बा। गोड़े-हाथे धूर-माटी लगही के नइखे। नीमन-चिकन रहù। किसान त हमेशा मइलभिलोरे ना रही। देश के किसान त भगवान हवें,उनकी उपजावल अनाज से सबकर पेट भराता, लेकिन वाह रे! व्यवस्था किसान भगवान लोग खातिर कवनो व्यवस्था ना होत बा। सरकार शहर में भागत नौजवानन के रोके खातिर मनरेगा चलवलसि। किसान के मजदूर के अभाव हो गइल। मशीनी युग आइल, खेत कंबाइन से कटाये लागल। चारा- भूसा पर आफत आ गइल। हमरा समझ में जे सबसे ज्यादा परेशान ओकर नाम किसान। जेकर निकर जाव जियते पिसान,ओही के कहल जाव किसान। एइसन किसान के मेहरी जब गहना के बाति करी तब इहे कहल जाई-
हमरा सिर पर चढ़ल बा कातिक, तोहरा   गहना सुझता। जेकरा पर बा खेती-बारी, उहे बंदा बुझता।।
कवनो ना पटवलें माटी, खाद-बीया बदे जुझता। सरकार के कवन व्यवस्था, इहे करेजा चुभता।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य १० नवम्बर २०११ के अंक में प्रकाशित है .

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