जाड़ की मारे कांपे हाड़, भइल करेजा सबकर माड़
खून जमा देबे वाली ठंड। पहाड़ पर बर्फबारी। मैदान
पर पड़ल भारी। बहुत जतन की बाद भी गलन से राहत ना मिलल। रोज मरला के खबर
लेकिन प्रशासन पर ना पड़ल असर। गोरखपुर-बस्ती मंडल में रोज दर्जन-दु दर्जन
लोग असमय ही काल की गाल में समात हवें। कुशीनगर की बरवा राजापाकड़ के मुसहर
बस्ती के मस्ती मातम में बदल गइल। सात लोग के लकवा मारि दिहलसि। पूर्वाचल
में ठंड से मारल मनइन से अस्पताल भरल बा। कहर बरपावत सर्दी आ घेरले कुहासा
से उड़ान रद्द होता। ट्रेन लेट होत बा। रोडवेज के आय कम हो गइल। ईट
भट्ठावालन के भट्ठा बैठ गइल। लकड़ी कोयला के दाम आसमान पहुंचल बा। गोरखपुर
में सन 13 में 113 वर्ष के रिकार्ड टूट गइल। जाड़ से कांपत लोग कहत बा- ‘
दई-दई घाम करù, सुगवा सलाम करे, तोहरे बलकवा के जड़वत बा , पुअरा फूंकि-
फूंकि तापत बा’। जाड़ा के जवाब भी जानदार बा- ‘ लक्ष्कन के छुएब नाहीं,
जवनका लगे जेठ भाई। बुढ़वन के छोड़ब नाहीं, चाहें केतनो ओढ़िहें रजाई।’
गांव- देहात के इ कहावत असों की जाड़ में फेल हो गइल। लक्ष्का -जवान, बूढ-
सयान सब येह हाल से बेहाल बा। स्कूलन के छुट्टी हो गइल बा। दफ्तरन के बाबू
लोग पुरनका फाइल फूंकि के ताप मरलें। समाजसेवी लोग कुछ कंबल बांटि के कुछ
अलाव जला के आपन-आपन फोटो खिंचवा के धन्य हो गइलें। प्रशासन के अलाव आ कंबल
ऊंट के मुंह में जीरा साबित होत बा। बुध के कुछ घाम निकरल त लोग बुझल दिन
बदल गइल। सांझ के अस पारा गिरल कि हाथ-पांव सुन्न हो गइल। गलन ठिठुरा
दिहलसि। नगर निगम के ओद-कांच लकड़ी के लूट मचि गइल। सिपाही जी चौराहा पर
अलाव खातिर नगर निगम की ट़क से लकडी उतरवइबे कइलें रिक्शा पर लदवा के कुछ
घरहु भेजवा दिहलें, मेहरी-बच्चा ताप के गरमा जइहें। मनबोध मास्टर ठंड की
मार से बचे के उपाय बतवलें-‘ रूई, धुंई , दुई’। बाबा बोललें- असो के
जाड़ में सब फेल हो गइल। कहीं राहत ना बा। गरीब मनई गरीबी की मार से किकुरल
बा त अमीर लोग हीटर आ ब्लोवर लेके ताकत बा, बिजुलिये के ठंडा मार देले बा।
सर्दी की सितम पर बस इहे कहल जाई-
जाड़ की मारे कांपे हाड़,
भइल करेजा
सबकर माड़।।
असों के जाड़ा बहुत ना खेपलें,
केतने गइले सरग सिधार।।
कांपत
संगी हीत आ नात,
केइसे बीती पूस क रात।।
दु हजार तेरह के जाड़,
अस
समने खाड़।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 10/1/13 के अंक में प्रकाशित है ,
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