देवलोक में शिवलीला
मनबोध मास्टर के गम, कम ना होत बा। धर्म के प्रति आस्था में उ हरदम इहे याद कइले रहलेंिशव ही सत्य है। सत्य ही शिव है। शिव ही सुंदर है। अचानक इ का हो गइल? देवलोक में शिवलीला। शिव जब भी लीला करेलन त विनाश ही होला। देवलोक में बादर फटल। धरती धंसल। बारिश आ बाढ़ में सब कुछ बहि गइल। तबाही की मंजर में लोग काल की गाल में समा गइलन। बहुत लोग लापता हो गइलन। क्षुधा मिटावे के अन्न मुहाल हो गइल। प्यास मिटावे के पानी के अकाल हो गइल। पेड़-पौधन के पतई चबा के जान बचावला की जद्दोजहद में लागल पुन्यात्मा भी परेशान हो गइलन। सांच कहल गइल बा- कुदरत की लाठी में बड़ी जान होले, उ बहुत लोग के जान एके साथ ले सकेले। कुदरत जब मारेले त बचला के गुंजाइश ना बचेला। कुदरत के कोप के कारण का बा? येह पर भी विचार के समय बा। दोष प्रकृति की ऊपर ठेल के अपने ना बचल जा सकेला। प्राकृतिक संसाधन जइसे जल, वन, खनिज के दोहन कइला में मनई ही लागल बा। नदी के बांध में बांधत मनई ना सोचले रहे गंगा माई कोपि जइहन। जब जल पल्रय आवत बा त सजो बुद्धि फेल हो जाता। ओही पल्रय में मनई के संपूर्ण प्रताप समाप्त हो जाता। रुपया-पैसा, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, गोल-गिरोह कुछ भी काम ना आवत बा। उत्तराखंड त देवलोक रहल। पर्यटकन के लुभावे खातिर, ललचावे खातिर,बोलावे खातिर, भरमावे खातिर देवलोक में का ना भइल। पहाड़ कटाइल, विस्फोट से उड़ावल गइल। जेसीबी लगा के पहाड़ के पेट चिचोहल गइल। वन-उपवन उजाड़ल गइल। नदी के किनारा काटल गइल। शहर बसावल गइल। बाजार लगावल गइल। पुन्य करे वाला देवलोक सैर-सपाटा स्थल बन गइल। होटल, धर्मशाला, आश्रम बनल। का होता येह जगहन पर, कबो सोचल गइल। अधरम बढ़ल त देवलोक के देवता लोग कोप गइलन। बाबा बदरीनाथ, बाबा केदारनाथ सब कोप गइलन। शिव की कोप पर एगो शिवभक्त अपनी कविता में बस इहे गोहरावत रहे-
माथवाली गंगा , नाथ काहें बदे छोड़ि दिहलीं, सुसुकि-सुसुकि रोवत, नर-नारी दरबार में। लगल रउरी गटई के शेष खिसिआय गइलें, लील गइलें सब कुछ, एकै फुफकार में। देवलोक करवट, का ले लिहलसि बोलीं नाथ , पुन्यात्मा लोग गइल रहलें, रउरी जयकार में। फाटल जब बादर, कफन-चादर ना बदा भइल, शिवलोक में समाहित केतने, बदरी-केदार में।। - नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के २७/६/१३ के अंक में प्रकाशित है . |
जिन इलाकों में जोर से न बोलने तक की सलाह थी वहां आज भयानक शोर है. यह शोर सड़कों और सुरंगों के लिए पहाड़ों को उड़ाते डायनामाइट का हो या साल-दर-साल बढ़ते श्रद्धालुओं को धाम पहुंचाने के लिए दिन में दसियों चक्कर लगाते हेलीकॉप्टरों का, इसने प्रकृति की नींद में खलल पैदा कर रखा है. अमरनाथ से लेकर केदारनाथ तक ऊंचे हिमालय में बसे हर तीर्थ का हाल एक जैसा है. नदियों के रास्ते में बेपरवाही से पुस्ते डालकर बना दिए गए मकान, रास्तों पर जगह-जगह फेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों के अंबार और तीर्थों में फिल्मी गानों की पैरोडी पर लाउडस्पीकर से बजते कानफाड़ू गाने इशारा कर रहे हैं कि समाज के रूप में हमें भी खुद को सुधारें. नहीं सुधरेंगे तो यह परिमार्जन देर-सबेर प्रकृति खुद ही कर लेगी और वह कितना क्रूर हो सकता है यह हम देख ही रहे हैं.अधरम बढ़ल त देवलोक के देवता लोग कोप गइलन। बाबा बदरीनाथ, बाबा केदारनाथ सब कोप गइलन।
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