मनबोध मास्टर शुरू से ही भैंस के समर्थक रहलें। जव भी कबो अक्ल आ भैंस में बड़वर कौन? के सवाल उठे, त हमेशा भैंस के बड़वर बतावत रहलें। कबो-कबो अपनी मोट मेहरी के भैंस कहला में ना सकुचात रहलीं। भैंस की सहनशीलता भी बेजोड़ ह। केहू केतनो बीन बजाओ, उ त पगुरइबे करी। भैंस हमेशा लाभकारी रहल। जवन दूध दिहलसि ओकरे सहारे पानी भी दूध के दाम बिक गइल। भैंस मरल त बनल जूता आ अक्ल मरल त मिलल जूता। अक्ल के रूप-रंग के देखले बा? भैंस के रूप-स्वरूप सामने बा। सोशल साइट पर भैंस र्चचा में बहुत कुछ सुने- गुने-धुने के मिलल। इ मन के विकार ना आपन-आपन विचार ह। अखबारी जीवन में जब भी भैंस चोरी के कवनो मामला आवे, इ कह के टरका देत रहलीं - ‘ इहो कवनो खबर ह’। हमरो अक्ल घास चर के लौटल जब अखबार से लेके टीवी तक आ सोशल साइटन पर भैंस चोरी की घटना के र्चचा चलत रहे। इ कवनो कटाक्ष ना, कवनो उपहास ना। हकीकत के बात बा। मंत्री जी के भैंस चोरी भइल। यूपीपी के शाबासी देबे के चाहीं। सैकड़ों गुमशुदगी में बरामदगी शून्य आ फरार अपाराधिन के पकड़ला की मामिला में आंख मून वाली पुलिस महज 36 घंटा में मंत्री जी की तबेला से गायब भैंस के खोज निकरलें। मंत्री जी के भैंस सामान्य भैंस ना, वीआईपी भैंस होले। तबे त भैंस खोजे खातिर एसपी लगलें, एएसपी भगलें, सीओ जगलें, कई थाना के फोर्स लागल, क्राइम ब्रांच, डॉग स्क्वॉयड, खुफिया..। मतलब की पूरा महकमा भैंस की पीछे। भैंस खोज निकरलें, फिर भी एगो चौकी प्रभारी आ दु सिपाही नपा गइलें। खैर, सोशल साइट पर बहुत प्रतिक्रिया अइली। गुदगुदावे वाली कुछ प्रतिक्रिया सुन के हम इ कहब‘ हेलल-हेलल भइंसिया पानी में..’। एक जने कइलें-भैंइसिन के जेड प्लस सुरक्षा मिले के चाहीं। दुसरका जने कहलें- इ बीन की आगे पगुरावे वाली भैंस ना रहली, इ राजनीतिक रूप से जागरूक भैंस रहली, दिल्ली में आप के टिकट मांगे गइल रहली। तीसरा जने कहलें- मेरठ में मोदी के रैली देखे गइल रहली। चौथा जने कहलें- पुलिस के नाक आ नौकरी के बात आइल त भैंस लौट अइली। और भी बहुत कुछ., लेकिन एगो सवाल त साफे हो गइल- जिसकी लाठी उसकी भैंस। पुलिस फामरुला में बहुत पर्दाफाश देखले होखब, जेमे चुहिया भी हाथी हो जाले। अब इ कविता-
यूपी में चर्चित भइल, भला भैंस के केस।
पुलिस महकमा जुट गइल, खूब लगवले रेस।
नाक आ नौकरी की चलते, भैंस के खोज निकारे।
तबहुं तीन पुलिसकर्मी, नप गये बेचारे।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 06 /2 /14 के अंक में प्रकाशित है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपन विचार लिखी..