मनबोध मास्टर के चश्मा से सियासती धुंध लउकत बा। येह धुंध में लोक लुभावन
बरसात होत बा। दिल्ली दिल खोल के त लखनऊ बड़-बड़ बोल बोल के चुनावी चाशनी
से पगल खैरात बांटत बा। लोग कहेलें नाम बदलला से का होला? काहें ना होला,
ना होइत त रानी लक्ष्मीबाई के नाम के वॉय-वॉय कर के समाजवादी पेंशन के
कांव-कांव ना होइत। आसमान में धुंध बा, लोक किकुरल बा लेकिन सियासत की
द्वंद्व में बहुत गरमी बा। येही गरमी में गोरखपुर की मानबेला में एक जने
गरज गइलें त दूसरका जने बरसे की तैयारी में हवें। जवना शिक्षामित्र लोग के
कई बार लखनऊ में लाठी सेवा भइल ओह लोग के अब बल्ले-बल्ले। बांट भइया, बांट
भइया खूब रसगुल्ले। कहीं इ सियासतबाजी ना हो जा। देश में घोषणा, अमल, अदालत
के चक्कर में बहुत मामिला पिसा के ठीक हो जालें। चुनावी मौसम देख के
राजनीतिक दल दिल खोल के दिलदारी देखवावत हवें। आस्तिन चढ़ावे वाला पप्पू
भइया के बोल तबसे बदल गइल जबसे मौनी बाबा उनके हरियर झंडी दे दिहलन। फैसला त
जनता की हाथ बा। मौनी-मैना की बोलले का होई? जवन लोग साठ साल में देश के
तरक्की ना करा सकल उ तीस दिन में दिल्ली की छोटकी सरकार से हिसाब लेत बा।
दिल्लीवालन के का कहल जा। जेके लोग अंगुठी के नगीना बुझत रहलें उ कइसे नाक
के पोंटा हो गइल? राजनीति के सफेद जरायम बुझत में जनता हमेशा ठगा जाति बा।
कभी ओकरा हाथे त कभी दूसरा की हाथे। जनता के सुनते के बा? अगर सुनत त डेढ़
सौ चिट्ठी लिखला की बाद भी सुनवाई ना भइला से नाराज लोग बुधवार की दिने
मौनी बाबा की विज्ञान भवन में आयोजित वक्फ विकास निगम की कार्यक्रम में
हंगामा ना करितन। झाड़ू से भ्रष्टाचार मिटावे के संकल्प करे वाला आम आदमी
अब चंदा के जानकारी दिहला में भी कतरा ता। आज मौनी आमवस्या ह। मुंह खोलला
की पहिले नहा लिहला के जरूरत बा। नहइला की दौरान मुंह से आवाज ना बहरिआई त
बहुत पुन्य होई। नहा-धो के तैयार हो जाई। मुंह खोलीं चाहें ना खोलीं। बोलीं
चाहें ना बोलीं लेकिन विचार के मंथन अंदर ही अंदर चले दीं। येही मंथन से
निकरल अमृत लोकतंत्र की जीवित रखी। देश में मोदी के लहर भले चलत होखे,
शंकराचार्य स्वरूपानंद की निगाह में मोदी हिंदुत्व खातिर बड़वर खतरा हवें।
येह पर रउरा सभे सोचीं। हम कुछ ना बोलब। आज मौनी आमवस्या ह।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 30 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है.
बरसात होत बा। दिल्ली दिल खोल के त लखनऊ बड़-बड़ बोल बोल के चुनावी चाशनी
से पगल खैरात बांटत बा। लोग कहेलें नाम बदलला से का होला? काहें ना होला,
ना होइत त रानी लक्ष्मीबाई के नाम के वॉय-वॉय कर के समाजवादी पेंशन के
कांव-कांव ना होइत। आसमान में धुंध बा, लोक किकुरल बा लेकिन सियासत की
द्वंद्व में बहुत गरमी बा। येही गरमी में गोरखपुर की मानबेला में एक जने
गरज गइलें त दूसरका जने बरसे की तैयारी में हवें। जवना शिक्षामित्र लोग के
कई बार लखनऊ में लाठी सेवा भइल ओह लोग के अब बल्ले-बल्ले। बांट भइया, बांट
भइया खूब रसगुल्ले। कहीं इ सियासतबाजी ना हो जा। देश में घोषणा, अमल, अदालत
के चक्कर में बहुत मामिला पिसा के ठीक हो जालें। चुनावी मौसम देख के
राजनीतिक दल दिल खोल के दिलदारी देखवावत हवें। आस्तिन चढ़ावे वाला पप्पू
भइया के बोल तबसे बदल गइल जबसे मौनी बाबा उनके हरियर झंडी दे दिहलन। फैसला त
जनता की हाथ बा। मौनी-मैना की बोलले का होई? जवन लोग साठ साल में देश के
तरक्की ना करा सकल उ तीस दिन में दिल्ली की छोटकी सरकार से हिसाब लेत बा।
दिल्लीवालन के का कहल जा। जेके लोग अंगुठी के नगीना बुझत रहलें उ कइसे नाक
के पोंटा हो गइल? राजनीति के सफेद जरायम बुझत में जनता हमेशा ठगा जाति बा।
कभी ओकरा हाथे त कभी दूसरा की हाथे। जनता के सुनते के बा? अगर सुनत त डेढ़
सौ चिट्ठी लिखला की बाद भी सुनवाई ना भइला से नाराज लोग बुधवार की दिने
मौनी बाबा की विज्ञान भवन में आयोजित वक्फ विकास निगम की कार्यक्रम में
हंगामा ना करितन। झाड़ू से भ्रष्टाचार मिटावे के संकल्प करे वाला आम आदमी
अब चंदा के जानकारी दिहला में भी कतरा ता। आज मौनी आमवस्या ह। मुंह खोलला
की पहिले नहा लिहला के जरूरत बा। नहइला की दौरान मुंह से आवाज ना बहरिआई त
बहुत पुन्य होई। नहा-धो के तैयार हो जाई। मुंह खोलीं चाहें ना खोलीं। बोलीं
चाहें ना बोलीं लेकिन विचार के मंथन अंदर ही अंदर चले दीं। येही मंथन से
निकरल अमृत लोकतंत्र की जीवित रखी। देश में मोदी के लहर भले चलत होखे,
शंकराचार्य स्वरूपानंद की निगाह में मोदी हिंदुत्व खातिर बड़वर खतरा हवें।
येह पर रउरा सभे सोचीं। हम कुछ ना बोलब। आज मौनी आमवस्या ह।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 30 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है.
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