गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

केहु चाय पियावत बा केहु दूध पियावत बा

मनबोध मास्टर घर से निकल के ज्योंही चौराहा पर अइलें,कुछ उज्जर कुरता वाला लोग भेटइलें। घेर के हथजोड़ी कइलें, एक गिलास दूध हाथ में धइलें। बोललें-पी लीं, पी लीं। स्वास्थ्य बनल रही। मास्टर बोललें- भइया! हम जतरा पर निकरल हई, दूध पी के जतरा कइले खतरा होला। ‘ दूध बंटवन’ से गला छोड़ा के मास्स साहब भगलें। दिमाग में एक-एक लोग के चेहरा नाचे लागल। सबके चिन्हन हई। इ कवन चाल चलत हवें लोग। ना गाय पललें, ना भैंस-भेड़-बकरी। फेर एतना दूध मुफ्त में काहें बंटात बा। लगता देश में श्वेत क्रांति आ गइल। सतयुग लौट आइल। दूध के नदी बहे लागल। चलीं अच्छा भइल, चालीस रुपया लीटर के पनछुछुर दूध खरीदला से मुक्ति मिली। अब खांटी मिली। हर चौक-चौराहा पर स्टॉल लगाके दूध पियावल जाई। जे पियला में आना-कानी करी ओकरा घरे पोलियो ड्राप जइसे दूध के खुराक पहुंचावल जाई। गावल जाई- पी ले पी ले हे मोरे राजा, पी ले पी ले ए मेरे जानी। अब फ्री के जमाना आ गइल। एक पर एक फ्री। कहीं चाय फ्री त कहीं दूध। भइया अपन तो सीधा-साधा फंडा ह, अगर कहीं फ्री त बुझिहù कुछ गड़बड़ बा। फ्री आ फाड्र के अंतर बुझला में बहुत बुझदानी-समझदानी के जरूरत बा। गांव-देहात में शिक्षा फ्री भइल त लोग अपनी लरिकन के शहर की महंगा कान्वेंट में पढ़ावे लगलें। सरकारी अस्पताल में दवाई फ्री भइल त लोग महंगा नर्सिग होम में भर्ती करावे सिलसिला शुरू कइलें। फ्री वाली चीज के लोग फालतू बुझे लागल। मास्स साहब बड़बड़ाये लगलें- फ्री मतलब धोखा, जालसाजी, पल्रोभन। इ उ चारा ह जवना के फेंक के वोटर रूपी मछली फंसावल जाता। चौसठ साल से जनता के खून चूसे वाला अगर खैरात बांटे त उनकी दरियादिली के का जनता ना बुझी? बहुत-बहुत नजारा देखे मिली। अब इ कविता-
केहु चाय पियावत बा, केहु दूध पियावत बा।
 सब समझत बा, सब बूझत बा, बेवकूफ बनावत बा।
 केहु मोदी गावत बा, केहु राहुल गावत बा।
 केहु दर्जनभर के मिला के , खिचड़ी खूब पकावत बा।। 
झांसा में मत अइहो भइया, बहुरुपिया धावत बा। 
जे खून चूसले चौसठ साल, उ फेरु भरमावत बा।।
 खैरात बंटत बा चहुंओर, दरियादिली दिखावत बा। 
वोटर भी बुझनेक भये, कहें चुनउआ आवत बा।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 27 /2 /14  के अंक में प्रकाशित है।

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