मनबोध मास्टर घर से निकल के ज्योंही चौराहा पर अइलें,कुछ उज्जर कुरता वाला
लोग भेटइलें। घेर के हथजोड़ी कइलें, एक गिलास दूध हाथ में धइलें। बोललें-पी
लीं, पी लीं। स्वास्थ्य बनल रही। मास्टर बोललें- भइया! हम जतरा पर निकरल
हई, दूध पी के जतरा कइले खतरा होला। ‘ दूध बंटवन’ से गला छोड़ा के मास्स
साहब भगलें। दिमाग में एक-एक लोग के चेहरा नाचे लागल। सबके चिन्हन हई। इ
कवन चाल चलत हवें लोग। ना गाय पललें, ना भैंस-भेड़-बकरी। फेर एतना दूध
मुफ्त में काहें बंटात बा। लगता देश में श्वेत क्रांति आ गइल। सतयुग लौट
आइल। दूध के नदी बहे लागल। चलीं अच्छा भइल, चालीस रुपया लीटर के पनछुछुर
दूध खरीदला से मुक्ति मिली। अब खांटी मिली। हर चौक-चौराहा पर स्टॉल लगाके
दूध पियावल जाई। जे पियला में आना-कानी करी ओकरा घरे पोलियो ड्राप जइसे दूध
के खुराक पहुंचावल जाई। गावल जाई- पी ले पी ले हे मोरे राजा, पी ले पी ले ए
मेरे जानी। अब फ्री के जमाना आ गइल। एक पर एक फ्री। कहीं चाय फ्री त कहीं
दूध। भइया अपन तो सीधा-साधा फंडा ह, अगर कहीं फ्री त बुझिहù कुछ गड़बड़ बा।
फ्री आ फाड्र के अंतर बुझला में बहुत बुझदानी-समझदानी के जरूरत बा।
गांव-देहात में शिक्षा फ्री भइल त लोग अपनी लरिकन के शहर की महंगा कान्वेंट
में पढ़ावे लगलें। सरकारी अस्पताल में दवाई फ्री भइल त लोग महंगा नर्सिग
होम में भर्ती करावे सिलसिला शुरू कइलें। फ्री वाली चीज के लोग फालतू बुझे
लागल। मास्स साहब बड़बड़ाये लगलें- फ्री मतलब धोखा, जालसाजी, पल्रोभन। इ उ
चारा ह जवना के फेंक के वोटर रूपी मछली फंसावल जाता। चौसठ साल से जनता के
खून चूसे वाला अगर खैरात बांटे त उनकी दरियादिली के का जनता ना बुझी?
बहुत-बहुत नजारा देखे मिली। अब इ कविता-
केहु चाय पियावत बा, केहु दूध पियावत बा।
सब समझत बा, सब बूझत बा, बेवकूफ
बनावत बा।
केहु मोदी गावत बा, केहु राहुल गावत बा।
केहु दर्जनभर के मिला के
, खिचड़ी खूब पकावत बा।।
झांसा में मत अइहो भइया, बहुरुपिया धावत बा।
जे
खून चूसले चौसठ साल, उ फेरु भरमावत बा।।
खैरात बंटत बा चहुंओर, दरियादिली
दिखावत बा।
वोटर भी बुझनेक भये, कहें चुनउआ आवत बा।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 27 /2 /14 के अंक में प्रकाशित है।
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