कालनेमि
ओढ़ले बा , संत के लिवास।
साधु-संत चिन्हला में, झंझल पचास।।
बच्ची के
कच्ची ना रहे दिहलसि चंठ।
अइसन ‘असंतन जी’ के महिमा अनंत।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के २९ अगस्त १३ के अंक में प्रकाशित है।
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गुरुवार, 29 अगस्त 2013
कालनेमि ओढ़ले बा संत के लिवास..
बुधवार, 28 अगस्त 2013
आई ना ओदारल जा प्याज के बोकला...
मनबोध मास्टर प्याज के बोकला ओदरला में लागल
बाड़न। सबका पता बा बोकला ओदरले प्याज में कुछ ना बची। प्याज की बारे में
एगो कहावत कहल जाला- ‘ नया मुल्ला प्याज बहुत खाता है।’ भइया ! अब
मुल्ला नया होखें चाहे पुराठ प्याज से परहेज करत हवें। प्याज बहुत दुर्गध
देले। छिलला पर आंख से आंसू गिरा देले। प्याज सरकार भी गिरा देले। भोजपुरी
गायक मनोज तिवारी के एगो गाना याद आवत बा- ‘ वाह रे! अटल चाचा, पियजुइया
अनार हो गइल.’। इहे प्याज ह जवन अटल जी के सरकार के सरका देले रहे। प्याज
के लेके हाल की दिन में बहुत मजेदार खबर भी अइली। मध्य प्रदेश की छतरपुरा
गांव में किसान चंपालाल त प्याज की महंगाई से ही मालामाल हो गइलन। प्याज
पैदा कइलन त पांच रुपया किलो बिकत रहे, बेचला की जगह पर गोदाम धरा दिहलन।
जब आसमान पर दाम चढ़ल त बेंचलन। अब प्याज बेंच के कार खरीद लिहलन। इ प्याज
के प्र-ताप ह। अब त डाकू-चोर भी रुपया -पैसा, गहना-गुरिया के डकैती की जगह
पर प्याज लूटत हवें। जयपुर-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर बंदूक की बल पर
ट्रक से 40 टन प्याज लूट लिहलन। आज प्याज के नाम निकारते मुंह से बदबू
निकरे लागत बा। प्याज पॉलिटिक्स देखे के होखे त दिल्ली जाई। दिल्ली सरकार आ
विपक्षी भाजपा दुनो स्टाल पर सस्ता प्याज बेच के वोटरन के भरमावत हवें।
प्याज देसज दवाई भी ह। अगर कान केहू के बथता त प्याज के रस ही लहता। कहीं
जल गइल त झट से प्याज कूंची आ लगा दीं। कीड़ा-मकोड़ा की कटले पर प्याज के
कूटीं आ लगायीं इ देहाती बूटी ह। हिस्टीरिया में बेहोश रोगी की नाक में
प्याज कूट के सुंघाई, झट से भूत उतर जाई। आज प्याज के महत्व पर ताजातरीन
घटना रक्षाबंधन की पर्व पर फेसबुकियन की बीच र्चचा में रहल। राखी बंधवायी
में एगो बहना अपनी भइया से नगदी आ गहना की जगह पर गिफ्ट में बस पांच किलो
प्याज मंगलसि। प्याज के बोकला ओदरले कुछ ना भेंटाई लेकिन प्याज पर बस इहे
कविता सटीक बइठी- मनमोहन की राज में, सगरो राज सुराज।
महंगी अस चंपले बा
भइया, दुर्लभ भइल पियाज।।
बोकला बहुत ओदारल गइल, तबो ना लागे लाज।
पॉलिटिक्स आ पार्लियामेंट में, भइल ना एकर इलाज।।
येही प्याज की कारने, गइल
रहे अटल के राज।
मनोज तिवारी गवले रहलें, लोकगीत में साज।।
रक्षाबंधन पर्व
पर, प्याज बनल सरताज।
बहना, नगदी-गहना छोड़ के, गिफ्ट में मांगे प्याज।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के २२ अगस्त १३ के अंक में प्रकाशित है।
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सोमवार, 19 अगस्त 2013
पंद्रह अगस्त के सब स्वतंत्र...
मनबोध मास्टर स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर देश की नाम संबोधन पर बहुत कुछ सुना गइलन। आखिरकार पंद्रह अगस्त के माहौल रहे, येह लिए भी उनकर जुबान कुछा ज्यादा ही स्वतंत्र रहे। आई सुनल जां उनकर संवोधन- देश के भाई-बहन लोग! सादर पण्राम। भइया इ भारत वर्ष ह। जन-जन में आज राष्ट्रीय पर्व के हर्ष बा। सोने के चिरई रहल हमार देश। पांखि नोंच के आपन तिजोरी भरत गइलन रहनुमा। अब त रहबर आ रहजन में कवनो फरके ना लउकत बा। इटली की बैसाखी पर लंगड़ात सत्ता। विरोध की नाम पर हिलत-डुलत ‘ भगवा पत्ता’। छोट दलन के सेटिंग- गेटिंग-चिटिंग। देश की साथे रोज एगो चिट। सीमा पर आंख तरेरत दुश्मन आ पोंछि सुटुकवले सरकार। दखिनहा की मरले पियराइल धान, ऊपर से चढ़ल हरिहर-कचनार साई, डंवरा जइसन खरपतवार। कइसे पनकी फसल। कइसे पनपी देश। कवना घाटे लागी नाव, जवना में मल्हवे करत बा छेद। हर रिश्ता बा घात के। चरित्र में ईमानदारी बस देखावे के दुनियादारी। व्यवहार में भ्रष्टाचार से भरल संसार। संस्कार त बस किताब में पढ़े-पढ़ावे वाली विषय वस्तु। जज्बात सिसकत बा। अस्मिता तार-तार होत बा। सभ्यता के चीर हरण होत बा। इंसान में भेड़िया के आत्मा समात बा। जे लाचार बा, मार खाके भी दर्द दबवले बा। करहला के अधिकार भी छिना गइल बा। अन्नदाता की मर्जी पर मेहनतकश के मजूरी तय होत बा। मजूरन की हक खातिर लड़े वाला लाल रंग अब पनछुछुर होत बा। वाम मार्ग के राही अगर दक्षिण पंथ के राह पकड़ लें त बुझीं राजनीति के खिचड़ी पक के तैयार हो गइल बा। रउरा सभे जान के ताज्जुब करब की देश की राजधानी में असों जेतना तिरंगा के बिक्री भइल ओहमे सौ में बीस चायनीज रहल। हमरी स्वतंत्रता आ संप्रभुता के प्रतीक तिरंगा भी आयातित हो गइल। गांधी बाबा त कहलें रहलें, चरखा चलावù सूत काटù। वाह रे देश!
वाह रे देश के लोग! नजर में केतना मोतियाबिंद छा गइल की चीनी सूत के कपड़ा आ चीनी रंग से कइल छपाई लोग के काहें बहुत पसंद पड़त बा। अंत में एगो कविता की साथे आपन बात पर विराम लगावत हई। जय हिंद। अंखिगर स्वतंत्र,
आन्हर स्वतंत्र।
अनपढ़ गंवार
‘बा-नर’ स्वतंत्र।
नेता स्वतंत्र,
वोटर स्वतंत्र।
संसद का हर
‘जो-कर’ स्वतंत्र।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्य्न्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 15 अगस्त 13 के अंक मे प्रकाशित है .
गुरुवार, 8 अगस्त 2013
सनकी कुक्कुर फेरु बा कटले, मानी ना इ खाली डंटले..
मनबोध मास्टर पाक की दुस्साहस आ सरकार की शिखंडीपन पर माथा पिटत हवें। हाय! इ का भइल? फिर मरा गइलन हमार सैनिक। देश की ऑन पर शहीद हो गइलन जवान। संसद में फेरु बहस जारी हो गइल। अइसन बहस जवना में शहीदन के बलिदान पर भी सदस्य लोग एकमत ना भइलें। केतना घटिया रील घूमत बा नेतन की दिमाग में। मंत्री बयान देत बा- ‘ फौजिन की ड्रेस में आतंकवादी रहलन, जवन हमला कइलन’। छी:, थू। एक बेर ना हजार बेर तोहरा येह बयान पर थूथू। हमरा देश की सीमा पर कबो चीन चढ़ता, कबो पाक बढ़ता। हमरा देश के हाल त ‘ अबरा के मेहरी’ जस हो गइल बा। देश की नेतृत्वकारी शक्ति की क्षमता पर प्रश्न चिह्न बा। सीमा की सुरक्षा के बेहतर इंतजाम ना क पावत हवù त देश के अपनी रहमोकरम पर छोड़ द लेकिन शर्मनाक बयान त मत दिहल करù। पाकिस्तानी घात लगा के हमला करत हवें। हमार पांच जवान शहीद हो गइलन। पाक की येह कारनामा पर इहे कहल जाई- ‘सनकी कुक्कुर फेरु बा कटले, मानी ना इ खाली डंटले।’ अइसन सनकी कुक्कुरन के दौड़ा के मार दिहल जाला। केइसन अरमीशन-परमीशन। पाक के औकाते केतना बा? हमरा उत्तर प्रदेश के लरिका अगर एकै साथ मूत दिहें त बुझीं पाकिस्तान बहि गइल। सरकार के शिखंडीपन देखीं, उहे घिसल-पिटल बयान-‘ हम शांत नहीं बैठेंगे’। करति का बा सरकार? शरीफ की अइसन शराफत से दोस्ती। इ हाथ मेरावत हवें, उ छूरा घोंपत हवें। पूरा देश सैनिकन की हत्या पर उबलत बा आ मंत्री जी पाकिस्तान के क्लीन चीट देबे पर लागल हवें। षड़यंत्रकारी से कइसन दोस्ती? विश्वासघाती पर कइसन भरोसा? सीमा पार से निरंतर गोली-बारी, फिर कइसन संघर्ष विराम? बंद करù बात-चीत। बस अब जंग के जरूरत बा। सिहुर-सिहुर कइला से, कुक्कुर के पूंछ भला सोझ होई मलला से। दुष्ट पाक मानी अब सिकमभर कंड़ला से। पाक की औकात पर, ओकरी कुराफात पर, रोज की आघात पर, सीमा की हालात पर बस इहे कविता सटीक बइठी-
यूपी की लरिकन की मुतले से बहि जाई,
नापाक पाक के ,बस एतने औकात बा।
मनबढ़ बा एतना, टेढ़ कुक्कुर की पूंछ जेतना,
छह माह में कइलसि, सरसठ बेर उत्पात बा।।
केतना लपेटाई तिरंगा में शहीदन के शव?
घरी-घरी घात से, लागत आघात बा।
आर-पार चाहत बा, जम करके एक बार,
सीमा से सटले, कुछ अइसने हालात बा।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के ८/८/१३ के अंक में प्रकाशित है।
गुरुवार, 1 अगस्त 2013
जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग..
मनबोध मास्टर के आपन अलग मोर्चा ह। न वामपंथी न दक्षिणपंथी। न पूरबपंथी न
पश्चिम पंथी। आज के अखबार पढ़ला की बाद संत कवि सूरदास से माफी मांगत एगो
कविता गुनगुनात रहलें- ‘जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग। बजाओ
अपने-अपने चंग.।’ अखबार के कुछ समाचार उदवेग के रख दिहलसि। बानगी के तौर
पर कुछ मामला रउरो सामने बा। महिला आइएएसअधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के
निलम्बन के मामला.। गौतम बुद्ध नगर में एगो धर्म विशेष के निर्माण रोकल त
बहाना बा, पर्दा के पीछे खनन माफियन के सत्ता से गंठजोड़ की कारन ही अकारन
रेता माफिया ‘दुर्गाजी’ के ‘रेतवा’ दिहलन। हाईकोर्ट के ही निर्देश
बा कि सार्वजनिक भूमि पर धार्मिक स्थल के निर्माण की पहिले अनुमति लिहल
जरूरी बा। दुर्गा आपन शक्ति देखवली त ‘नाग-पाल’आपन पॉवर। गांव-देहात
में एगो किस्सा कहल जाला कि यदि राजा कहें कि ‘ ऊंट, बिलरिया टांग ले
गइल, त बस हां-जी, हां-जी कहियो’। हां-जी की जगह ना-जी त झेलीं दुर्गा
जी राजा के नराजी। दूसरा मामला इ बा कि मनरेगा मजूरन के अब मोबाइल मिली।
बहुत जरूरी बा। रोटी बिना त दु वक्त कटि जाई लेकिन ‘ मोबाइल बिना जिनगी
कइसे कटी?’ मोबाइल चार्ज करे बदे भर के बिजली भी गांव में मिल जात त अति
सुन्दर हो जात। तीसरा मामला, बहुत स्थानीय, बहुत ज्वलंत बा। पिपराइच कस्बा
में एगो जमीन पर दु वर्ग के दावेदारी। इहे दुनियादारी ह। दावेदारी जिंदा
रही त दूनों ध्रुव के राजनीति भी जिंदा रही। भइया लोग! काहें बोर्ड लगावत
हवù, काहें उखाड़त हवù? गोरखपुर के काहें ‘अयोध्या-फैजाबाद’ बनावे पर
तुलल हवù। चौथा मामला, महानगर की एगो मैरेज हाऊस में सवर्ण एकता संकल्प
दिवस मनावल जात रहे। कुछ अति उत्साही ‘स-बरन’लोग असलहा से फायरिंग करे
लगलें। दइब के कृपा रहल नाल नीचे ना भइल नाहीं तù कुछ कार्यकर्ता वइसे कम
हो जइतन। भइया लोग तोप के लाइसेंस लेलù लेकिन दाग समय से। असमय के
चुटपुटिया भी भारी पड़ जाले। अइसने कुछ घटना आ अंजाम देबे वालन के आपन
रहनुमा माने वाला कवि के इ उद्गार- जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग।
बजाओ अपने-अपने चंग, दिखा दो अपने-अपने रंग।।
जग-गिलास से पेट भरो नहिं, चेतो कुछ नयो ढंग।
कुआं त अब रह ही गयो ना, घोल दो पाइप लाइन भंग।।
रार बसेहत रहो हर जगही, काटौ उड़त पंतग।
बढ़ै विवाद कुछ गला साफ हो, यही धरम का अंग।।
खुरफाती तत्वों से मिलकर, आये दिन कुछ हुड़दंग।
कहें देहाती अति उमंग से, लड़ो विरोधिन संग जंग।।
मेरा यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 1/8/13 के अंक मे प्रकाशित है
जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग...
मनबोध मास्टर के आपन अलग मोर्चा ह। न वामपंथी न दक्षिणपंथी। न पूरबपंथी न पश्चिम पंथी। आज के अखबार पढ़ला की बाद संत कवि सूरदास से माफी मांगत एगो कविता गुनगुनात रहलें- ‘जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग। बजाओ अपने-अपने चंग.।’ अखबार के कुछ समाचार उदवेग के रख दिहलसि। बानगी के तौर पर कुछ मामला रउरो सामने बा। महिला आइएएसअधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन के मामला.। गौतम बुद्ध नगर में एगो धर्म विशेष के निर्माण रोकल त बहाना बा, पर्दा के पीछे खनन माफियन के सत्ता से गंठजोड़ की कारन ही अकारन रेता माफिया ‘दुर्गाजी’ के ‘रेतवा’ दिहलन। हाईकोर्ट के ही निर्देश बा कि सार्वजनिक भूमि पर धार्मिक स्थल के निर्माण की पहिले अनुमति लिहल जरूरी बा। दुर्गा आपन शक्ति देखवली त ‘नाग-पाल’आपन पॉवर। गांव-देहात में एगो किस्सा कहल जाला कि यदि राजा कहें कि ‘ ऊंट, बिलरिया टांग ले गइल, त बस हां-जी, हां-जी कहियो’। हां-जी की जगह ना-जी त झेलीं दुर्गा जी राजा के नराजी। दूसरा मामला इ बा कि मनरेगा मजूरन के अब मोबाइल मिली। बहुत जरूरी बा। रोटी बिना त दु वक्त कटि जाई लेकिन ‘ मोबाइल बिना जिनगी कइसे कटी?’ मोबाइल चार्ज करे बदे भर के बिजली भी गांव में मिल जात त अति सुन्दर हो जात। तीसरा मामला, बहुत स्थानीय, बहुत ज्वलंत बा। पिपराइच कस्बा में एगो जमीन पर दु वर्ग के दावेदारी। इहे दुनियादारी ह। दावेदारी जिंदा रही त दूनों ध्रुव के राजनीति भी जिंदा रही। भइया लोग! काहें बोर्ड लगावत हवù, काहें उखाड़त हवù? गोरखपुर के काहें ‘अयोध्या-फैजाबाद’ बनावे पर तुलल हवù। चौथा मामला, महानगर की एगो मैरेज हाऊस में सवर्ण एकता संकल्प दिवस मनावल जात रहे। कुछ अति उत्साही ‘स-बरन’
लोग असलहा से फायरिंग करे लगलें। दइब के कृपा रहल नाल नीचे ना भइल नाहीं तù कुछ कार्यकर्ता वइसे कम हो जइतन। भइया लोग तोप के लाइसेंस लेलù लेकिन दाग समय से। असमय के चुटपुटिया भी भारी पड़ जाले। अइसने कुछ घटना आ अंजाम देबे वालन के आपन रहनुमा माने वाला कवि के इ उद्गार-
जाको संग कुमति उपजत है, हम भी उनके संग।
बजाओ अपने-अपने चंग, दिखा दो अपने-अपने रंग।।
जग-गिलास से पेट भरो नहिं, चेतो कुछ नयो ढंग।
कुआं त अब रह ही गयो ना, घोल दो पाइप लाइन भंग।।
रार बसेहत रहो हर जगही, काटौ उड़त पंतग।
बढ़ै विवाद कुछ गला साफ हो, यही धरम का अंग।।
खुरफाती तत्वों से मिलकर, आये दिन कुछ हुड़दंग।
कहें देहाती अति उमंग से, लड़ो विरोधिन संग जंग।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 01 अगस्त 2013 के अंक में प्रकाशित है .
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