गुरुवार, 29 अगस्त 2013

कालनेमि ओढ़ले बा संत के लिवास..

मनबोध मास्टर की संस्कार में रहल संत-सेवा, संत-सम्मान, संत-समागम, संत-प्रवचन, संत- आस्था, संत-दर्शन, संत-सत्संग..। कहल गइल बा- ‘ संत दरस को जाइये, तज ममता अभिमान। जस-जस पग आगे बढ़े, कोटिन यज्ञ समान’। देशभक्त, संस्कृति रक्षक, धर्मप्रेमी, अध्यात्मवेत्ता संत-महापुरुष लोग की चरन में शीश नवा के ‘ कलयुग के कालनेमि’ के वृतांत शुरू कइला की पहिले दिल-दिमाग में संत-असंत के बुझौव्वल बुझल जा। माथ मुड़ा लिहले, गेरुआ चढ़ा लिहले, दाढ़ी बढ़ा लिहले, भभूत रमा लिहले, करोड़ों चेला-चेलिन के लाइन लगा लिहले का केहू सांचों में संत हो जाला? बाना में ना,आचरण में संत दिखे के चाहीं। कलिकाल की काल में गुरुघंटालन के बाढ़, कुकर्मिन के कीर्तन, पाखंडिन के प्रवचन, अध्यात्म के ढोंग पर गोसाई बाबा बहुत पहिलही लिखले रहलें- ‘ मिथ्या रंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहे सब कोई ’। कलियुग की बानाधारी संत की बारे में कहल गइल-‘ पर त्रिय लंपट, कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने’। वाह का जमाना आइल बा- ‘ कलिकाल बिहाल किये मनुजा, नहीं मानत हौ अनुजा-तनुजा ’। अब त बस - पंडित सोई जो गाल बजावा.। मौजूदा वक्त में कुटिया वाला संतन के अकाल आ कोठी अटारी वाला बानाधारी संतन के संख्या ज्यादा लउकत बा। बानाधारी की पास दौलत बा, ताकत बा, सोहरत बा, समर्थक बा। येह लिए भी उ कानून से ऊपर बा। लानत बा अइसन बानाधारी संत के जेकरा पास आश्रम त बा लेकिन ना श्रम बा न शर्म। वैभव एतना बा की समाज व कानून के भय समाप्त हो गइल बा। अइसन बानाधारी संत, सादगी के स्वाहा कर के रंगमिजाजी में डूबल बा। बहक-बहक के बोलल प्रवचन हो गइल बा। विवादास्पद आचरण की चलते विश्वसनीयता के संकट खड़ा बा। धर्म-अध्यात्म की महान परंपरा के कलंकित करे वाला काम से आस्था के भी आघात पहुंचत बा। अपनी पूंजी-पहुंच की बल पर केहू के पहुंचा पकड़ के शक्ति, केहू के आबरू लूट के तृप्ति, केहू के ठग के भक्ति, केहू के सम्मोहित कर के आसक्ति वास्तव में संत के आचरण ना ह। इ त संत की लिवास में कालनेमि के आचरण ह। रावन के आचरण ह, जवन दाढ़ी-जटा बढ़ा के भिक्षा की बहाने सीताहरण कइले रहलें। रावन की‘ भिक्षाम् देहि’ शब्द में सीताहरण हो गइल। आज ‘ दीक्षाम् लेहि’ शब्द धंधा बन गइल। संपत्ति की सहारे आश्रम सजत बा। वैराग्य कहां बा? त्याग कहां बा? योग लापता बा, भोग हाबी बा। कुश-आसन गायब बा विषय वासना में आसन सिद्ध कइल जाता। शक्तिबर्धनी बटी खाके, भक्तिन के भरमा के, सेक्स साधना से कांतिहीन मुखारविंद कइला की बाद भी जेकरा कवनो लाज ना आवे, अइसन बानाधारी संत की बारे में ‘ दाढ़ी-झोंटा वालों! ऐसा काम ना करो, धर्म के कर्म को बदनाम ना करो’। की साथ शिलाजीत बाबा के जयकार लगावत बस इ कविता-
  कालनेमि ओढ़ले बा , संत के लिवास।
 साधु-संत चिन्हला में, झंझल पचास।।
 बच्ची के कच्ची ना रहे दिहलसि चंठ।
 अइसन ‘असंतन जी’ के महिमा अनंत।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के २९ अगस्त १३ के अंक में प्रकाशित है।

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