मनबोध मास्टर स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर देश की नाम संबोधन पर बहुत कुछ सुना गइलन। आखिरकार पंद्रह अगस्त के माहौल रहे, येह लिए भी उनकर जुबान कुछा ज्यादा ही स्वतंत्र रहे। आई सुनल जां उनकर संवोधन- देश के भाई-बहन लोग! सादर पण्राम। भइया इ भारत वर्ष ह। जन-जन में आज राष्ट्रीय पर्व के हर्ष बा। सोने के चिरई रहल हमार देश। पांखि नोंच के आपन तिजोरी भरत गइलन रहनुमा। अब त रहबर आ रहजन में कवनो फरके ना लउकत बा। इटली की बैसाखी पर लंगड़ात सत्ता। विरोध की नाम पर हिलत-डुलत ‘ भगवा पत्ता’। छोट दलन के सेटिंग- गेटिंग-चिटिंग। देश की साथे रोज एगो चिट। सीमा पर आंख तरेरत दुश्मन आ पोंछि सुटुकवले सरकार। दखिनहा की मरले पियराइल धान, ऊपर से चढ़ल हरिहर-कचनार साई, डंवरा जइसन खरपतवार। कइसे पनकी फसल। कइसे पनपी देश। कवना घाटे लागी नाव, जवना में मल्हवे करत बा छेद। हर रिश्ता बा घात के। चरित्र में ईमानदारी बस देखावे के दुनियादारी। व्यवहार में भ्रष्टाचार से भरल संसार। संस्कार त बस किताब में पढ़े-पढ़ावे वाली विषय वस्तु। जज्बात सिसकत बा। अस्मिता तार-तार होत बा। सभ्यता के चीर हरण होत बा। इंसान में भेड़िया के आत्मा समात बा। जे लाचार बा, मार खाके भी दर्द दबवले बा। करहला के अधिकार भी छिना गइल बा। अन्नदाता की मर्जी पर मेहनतकश के मजूरी तय होत बा। मजूरन की हक खातिर लड़े वाला लाल रंग अब पनछुछुर होत बा। वाम मार्ग के राही अगर दक्षिण पंथ के राह पकड़ लें त बुझीं राजनीति के खिचड़ी पक के तैयार हो गइल बा। रउरा सभे जान के ताज्जुब करब की देश की राजधानी में असों जेतना तिरंगा के बिक्री भइल ओहमे सौ में बीस चायनीज रहल। हमरी स्वतंत्रता आ संप्रभुता के प्रतीक तिरंगा भी आयातित हो गइल। गांधी बाबा त कहलें रहलें, चरखा चलावù सूत काटù। वाह रे देश!
वाह रे देश के लोग! नजर में केतना मोतियाबिंद छा गइल की चीनी सूत के कपड़ा आ चीनी रंग से कइल छपाई लोग के काहें बहुत पसंद पड़त बा। अंत में एगो कविता की साथे आपन बात पर विराम लगावत हई। जय हिंद। अंखिगर स्वतंत्र,
आन्हर स्वतंत्र।
अनपढ़ गंवार
‘बा-नर’ स्वतंत्र।
नेता स्वतंत्र,
वोटर स्वतंत्र।
संसद का हर
‘जो-कर’ स्वतंत्र।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्य्न्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 15 अगस्त 13 के अंक मे प्रकाशित है .
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