रुष्ट होके भी कभी, दल से नाता ना तोड़ा। राह में आई मुश्किल बहुत, मंजिल से मुंह ना मोड़ा।। सियासत की चाल ऐसी है, लोग बदल जाते हैं चंद लम्हों में। मोहन ने ताउम्र कभी समाजवादी विचारधारा ना छोड़ा। -नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 26/9/13 के अंक मे प्रकाशित है . |
गुरुवार, 26 सितंबर 2013
चलि गइलें मोहन बिसारि के पिरितिया
गुरुवार, 19 सितंबर 2013
डीजे बाजे, डंडा बाजे बाज रहे इंसान..
बाज रहे इंसान.. साधो! झूठ ना बोलावें। झूठ बोले त कौआ ना, कुक्कुर काट ले, पागल., अवारा., सनकी.। मनबोध मास्टर आज सब कह दीहें अपने मन की। चारों तरफ बजनी-बजना के माहौल बा। बात कहां से शुरू कइल जा, इहे ना बुझात बा। पब्लिक बिजली खातिर बाजति बा। पुलिस के डंडा बाजत बा। पॉलिटिशयन श्रेय लूटे खातिर चंग बजावत हवें। पुलिस के लीला भी गजबे बा। अपने क्षेत्र की विधायक के ना पहिचानत हवें, अपराधिन के का पहिचनिहें? रहनुमा की गिरेवान में हाथ डाल सकेलन लेकिन कवनो रहजन के ना पकड़ सकेलन। शहर के पुलिस ‘ बबरुबाहन के सेना’ बन गइल बा। अट्ठारह दिन के महाभारत एके दिन में खत्म कइला में लागल हवें। सिंघड़िया में बिजली खातिर बवाल होखे, चाहे रुस्तमपुर में सड़क खातिर प्रदर्शन। तरंग क्रासिंग के मामला होखे चाहें हट्ठी माई थान के गणोश प्रतिमा विसर्जन। बबरुवाहन के सेना जनता के खूब सेवा कइलसि। जब-जब पुरुआ बही सेवा याद रही। एगो बात और बेबाक। चुनावन में कई रंग के झंडा लउकेला, बहुते नेता लउकेलन। मौजूदा वक्त में जनता परेशान बा त उ नेता लोग कवना कन्दरा में लुकाइल हवें? पब्लिक जहां-जहां पिटाति बा, बाबाù-बाबाù चिल्लाति बा। बाबा आवत हवें, बाबा धावत हवें। घाव पर मरहम लगावत हवें, प्रशासन के गरमावत हवें। जनता जयकार लगावति बा। सजो दर्द खत्म। सवाल इहो उठत बा कि विसर्जन चाहें विदाई त जुदाई के माहौल होला। भक्त लोग काहें डीजे बजावेलन? काहें डांस देखावेलन? काहें ज्यादा चढ़ावेलन? नर्सेज हास्टल चाहे महिला छात्रावास देखते जोश काहें दूना हो जाला? अइसन श्रद्धा की सहारे काहें भक्ति के श्राद्ध कइल जाता? येह बारे में कबो सोचल गइल? पूजा नेम-धरम के चीज रहल। नेम-धरम ताक पर रख के चंदाउगाही, पियक्कड़ई, नाच-गाना( भक्तिरस के ना, भोड़ा रस के) बढ़त जाता। इ के रोकी? धीरे-धीरे इहे परंपरा बनल जाता। प्रतिमा स्थलन पर बाजत लाउडस्पीकर से मंत्र, अराधना, भजन, प्रार्थना, आरती के स्वर कम सुनाई आ गंदा गीत के संगीत से पांडाल पवित्र होई त देवी-देवता कइसे प्रसन्न होइहन। जिला की बड़का साहब के एगो बात बहुत नीक लागल-‘ शहर की तीस-चालीस मूर्तियन के विसर्जन करावला में इ हाल बा त दुर्गापूजा में चार हजार प्रतिमा विसर्जन के स्थिति कइसे सम्हराई?’ बोल-बबरुबाहन। ना बोलबù त सुनù कविता
डीजे बाजे, डंडा बाजे, बाज रहे इंसान।
बांस की पुलुई कानून के लुग्गा, टांग करे घामासान।।
बिगड़ रहल कानून व्यवस्था, चहुंओर बस हुड़दंग।
पब्लिक-पुलिस-पॉलिटिशियन पीटें, आपन-आपन चंग।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्य्नग्य राष्ट्रीय सहारा के 19/9/13 के अंक मे प्रकाशित है.
गुरुवार, 12 सितंबर 2013
कहां-कहां पेवन सटब$
गांव जर जाय त जर जाय। लरिका के अल रह जाय।। -नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्य्नग्य राष्ट्रीय सहारा के 12/9/13 के अंक मे प्रकाशित है. |
गुरुवार, 5 सितंबर 2013
देश होता खोंखड़, घाव होता गहीर.
मनबोध मास्टर सरकार की प्रशंसा में पुल बांध दिहलें। भाई पुल त जरुरिये बा। ‘ सियार के विआह ’ एतना बरखा में भी शहर की सड़क पर पानी जवन हिलोर मारे लागत बा। अब कई जने पढ़लिलखल कहिंहे- यह सियार का विवाह क्या होता है? अरे भाई! गांव-देहात में जब एक ओर दइब घाम कइले रहलन आ दूसरा सिवान में पानी बरसत लउकेला त ओके सियार के विआह ही कहल जाला। सरकार के प्रशंसा होखहि के चाहीं। सरकार बहुत उदार बा। छप्परफाड़ के देत बा। जे बेरोजगार बा ओके बेरोजगारी भत्ता देत बा। भइया लोग के लवलाइटिस ध लिहलसि। मोबाइल चार्ज कराके दिन-रात बैट्री डाऊन कइला की चक्कर में पड़ल हवें। लैपटॉप भी बंटे लागल। गांव में बिजुलिया अइबे ना करी त मोबाइल आ लैपटॉप चार्ज कइसे होई। लक्ष्की लोग के साइकिल बंटाइल। चलावे लगली त माई-बाप से स्कूटी मांगे लगली। गरीब मेहरारू लोग के साड़ी मिली। बुजुर्ग लोग के कंबल मिली। सत्तर वर्ष की उम्र में भी चाचा लोग डाक्टरी पढ़इहें। लाभ त बहुत भइल,बहुत होई। बहुत विकास भइल। बहुत कुछ बाकी बा। सड़क की मामला में एतना पिछुआइल बानी जा की- ‘ सड़क बीच गड़हा है कि गड़हा बीच सड़क है कि सड़किये गड़हा है कि गड़हवे सड़क है’ टाइप के संदेहालंकार हो गइल बा। हाईबे के हाल तक बेहाल बा। जब टूटता कवनो ट्रक के गुल्ला त बहुत होत बा हल्ला-गुल्ला। लागत बा जाम त तेजी पर लाग जाता विराम। एक दिन के जाम दूसरा दिने खुलत बा। सड़क पर लुटावल धन कवना जन की कामे आइल। जमाना बहुत बदलल बा। लेकिन चित्त आ चिंतन उहे पुरनके बा। रोटी-दाल-बाजार के चिंता। देश बहुत तरक्की करत बा। केंद्र के होखे चाहे सूबा के, सरकार ‘ दोऊ हाथ उलिचिए यही सयानो काम’ की लाइन पर चलति बा। अब त संसद में हंटर भी चलत बा। सीमा पाकिस्तान आ चीन बढ़त आवत बा त हंटर उठते ना बा। रुपया लगातार गिरत बा। पहिले गांव-देहात में लरिका खेलावत में लोग कहत रहे- ‘
हेले हेले बबुआ, कुरुई में ढेबुआ’। ढेबुआ के जमाना त बीत गइल। रुपया के आइल लेकिन उ केतना किकुरल जाता। रुपये पर सब दबाव बा त किकुरबे करी। पहिले रुपया के डालर से दोस्ती रहल। अब फासला 68 के बा। हे रुपया! तूं और गिर जा। एतना गिर जा कि सड़क पर गिरल रहù त केहू उठावे के चाहत ना करे। चोरी-डकैती-लूट के डर समाप्त हो जा। हाथ के मैल होजा। रुपया गिरला से सबसे बड़ा फायदा ई होई की अमीर-गरीब के खाई स्वत: ही मिट जाई। जमाखोरी, घूसखोरी, हेराफेरी, धोखाधड़ी समाप्त हो जाई। आई येह कविता के अर्थ खोजल जा-
देश होता खोंखड़, घाव होता गहीर। खूब चिंचियाइल करीं, बनल लोग बहीर।।
हेले हेले बबुआ, कुरुई में ढेबुआ’। ढेबुआ के जमाना त बीत गइल। रुपया के आइल लेकिन उ केतना किकुरल जाता। रुपये पर सब दबाव बा त किकुरबे करी। पहिले रुपया के डालर से दोस्ती रहल। अब फासला 68 के बा। हे रुपया! तूं और गिर जा। एतना गिर जा कि सड़क पर गिरल रहù त केहू उठावे के चाहत ना करे। चोरी-डकैती-लूट के डर समाप्त हो जा। हाथ के मैल होजा। रुपया गिरला से सबसे बड़ा फायदा ई होई की अमीर-गरीब के खाई स्वत: ही मिट जाई। जमाखोरी, घूसखोरी, हेराफेरी, धोखाधड़ी समाप्त हो जाई। आई येह कविता के अर्थ खोजल जा-
देश होता खोंखड़, घाव होता गहीर। खूब चिंचियाइल करीं, बनल लोग बहीर।।
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