कन्याओं की टोली से निकरत बिंदास शोर..। कहीं भजन, कहीं लोकगीत.। याद आइल आज पीड़िया ह। लोक संस्कृति के एगो अइसन पर्व जवन पूर्वाचल की गांवे- गांवें गोधन कूटला की बाद शुरू हो जाला। गोबर से बनल गोधन के पूजन आ कूटला की बाद पीड़िया के निर्माण आ दहववला की साथे समापन के सवा माह के दौरान नारी पक्ष द्वारा गृहस्थ आश्रम के सजो संस्कार के खेल(स्वांग) की माध्यम से एक पीढ़ी से होत दूसरे पीढ़ी तक चलत चलि आवत बा। समरसता, भाईचारा, अश्पृश्यता के अंत. अमीरी-गरीबी के ढहत खाई के पीड़िया अइसन पर्व पर भी देखल जा सकेला। पीड़िया में पुरुष सत्ता के कहीं कवनो प्रभाव ना। नारी सत्ता के ही रहन-सहन। तुतुलाह बोले वाली बच्ची से लेके विअहल-दानल युवती तक मायका में पीड़िया की माध्यम से जीवन के सच से रूबरू करावल एगो लोक स्वांग, एगो लोक पर्व, एगो लोक खेल। नाटक के पात्र डॉक्टर हो या धगरिन, पति हो या पिता, सास हो या ननद.। सब पात्र नारी। जब स्वांग करत रात में दरोगा बन के कवनो लक्ष्की रोबदार आवाज में गरजे त बड़े-बड़े के पेट पानी हो जा। जब बात साफ होखे कि दरोगा ना इ त फलनवां के बेटी पीड़िया के खेल करत रहल, सुन के लोग हंसत-हंसल लोट जा। पीड़िया में सामुहिकता के जवन रूप लउकेला बहुत अद्भुत। दीवाल पर गोबर से बनल सैकड़ों पीड़िया के लड़की लोग बड़ा आसानी से पहचान लेली। अंतर एतने रहेला कि बिअहल-दानल लड़की लोग के पीड़िया सेनुर से टिकाइल रहेली आ कुंआरि लड़किन के बिना टिकल। गांवन के ताल- पोखरा भरात गइल। लोग के कब्जा होत गइल। लेकिन उ जगह अबो जिवित बा जहां पीड़िया दहवावल जाला। पीड़िया के समापन ‘ भूजा मिलौनी ’ की साथे पूरा होला। भूजा मिलौनी में जाति-पांति के दीवार ढह जाला। एक दूसरे के लाई-गट्टा देत-लेत में जवन प्रेम झलकेला उहो अनोखा ह। चाउर, चिउरा, फरुही, मकई, सांवा, कोदो, टांगुन, बाजरा, बजरी, मड़ुआ. के भूजा। गोरखपुर में बसल कई परिवार के लड़की लोग चाउर-चिउरा की बाद और चीज के नाम सुनते चिहुक जइहन, लेकिन गांवन में पीड़िया की दिने ‘सतअनजा’ लउक जाला। देसी मिठाइन के भी गजब के मेल। गट्टा, बतासा, लकठा, खुरमा, पेड़ा, पेठा. । जब सतअनजा के भूजा आ देसी मिठाई के मेल मिल जाला त पीड़िया के परसादी के स्वाद गजबे हो जाला। पंडितपुरा के बिटिया दखिनटोली के बिटिया से भूजा मिलौनी कर के सामाजिक समरता के मिसाल कायम करेली। पीड़िया की समापन पर इ कविता दहि गइली पीड़िया, रहि गइल नेह। भूजा मिलौनी में , लउके सनेह।। - नर्व्देश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यन्ग्य राष्ट्रीय सहारा के 5/12/13 के अंक मे प्रकाशित है . |
गुरुवार, 5 दिसंबर 2013
दहि गइल पीड़िया, रहि गइल नेह
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