बुधवार, 22 जनवरी 2014

बुढ़िया की मरला के ना, दइब की परिकला के डर बा

बुढ़िया की मरला के ना, दइब की परिकला के डर बा मनबोध मास्टर कहलें- बुढ़िया की मरला के ना, दइब की परिकला के डर बा। येही डर से पीड़ा बा। लोग के मन सहम जाता। राजधानी में कई जने के पानी थहला की बाद नौवजवानन में जवन जज्बा पैदा भइल बा उहो लोग की चिंता के कारण बा। देश में आप के पल्राप चलता। कई लोग घोर संताप में पड़ गइल हवें। कहीं सरक ना जाये, कहीं घिसक न जाये, मेरे सिंहासन की शान रे..। भीषण शीतलहर के प्रकोप बा लेकिन राजनीति के कुड़ुकल मुर्गी आजकल अंडा ज्यादा देत हई। अंडा की साथ ही करिया झंडा के डिमांड बढ़ गइल बा। कई जगह ईट-पत्थर-डंडा भी.। दिल्ली में आम आदमी जवन अब खास बनल बा, खांसता त देश के सियासत हांफति बा। कई जगह त शीशा में अपनी परछाहीं की जगह आप के परछाहीं देख के लोग चिहुक जाता। सैफई में हीरो-हीरोइन की डांस पर, त पडरौना में मंत्री जी की ठुमका पर सवाल। सवाल जनता ना सियासतबाज उठावत हवें। जनता नयापन की उम्मीद में उंघइला से जागलि बा। एगो लहर उठल बा। जवना में वंशवाद के बहववला के ज्वार उमड़त बा। बड़े-बड़े अधिकारी, मीडिया कारोबारी, डॉक्टर- प्रोफेसर.. सरसरात समात हवें। शहर में प्रबुद्ध लोग के वॉकयुद्ध चलता लेकिन गांवन में अबो जाति-बिरादरी के बाति बतिआवेवाला लोग कहता- सराहल धीया.. ( एगो जाति विशेष, जवना के अछूत कहल जाला) घर जाली। गांववाला कहलें- हम्मन गांधी बाबा की जमाना से देखत हई। ठगे-ठगे बदलक्ष्या होता। कवो उ ठगता, कबो इ ठगता। शहर के लोग के कहता- आजादी के दूसरा जंग शुरू बा। भ्रष्टाचार , सांप्रदायिकता, जातिवाद, भाई-भतीजावाद के मार के भगा दिहल जाई। नैतिक साहस की बल पर अमेठी अइसन गढ़ में एगो कविहृदयी ललकारत बा। भाड़ा के लोग ओकरा ऊपर अंडा मारत बा। अंडा के फंडा भी कहीं प्रचार के जरिया न बन जाये काहें कि मरला की बाद भी कई अंडा फूटत ना बा। अब अंडा चलो चाहें डंडा। झंडा त ऊंचा होखबे करी। धंधा-पानी खत्म भइला की आशंका में सजो मौसेरा भाई एकजुट होके नवका लहर के रोके की षड़यंत्र में लागल हवें। मौजूदा हालात पर बस एगो कविता, जवना के अर्थ अपनी-अपनी हिसाब से निकारीं- 
शीतलहर में बह रही, यूं कुछ गरम बयार। 
बेवजह भी हो रही, अंडों की बौछार।। 
स्वेटर, मफलर, टोपियां, खांस रहे हैं आप। 
सहन नहीं क्यू हो रहा, उनको यह पल्राप।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती  भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 16 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है

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