गुरुवार, 9 जनवरी 2014

रउरी हाथे ही हो जाई, लोकतंत्र के शुद्धिकरण..

मनबोध मास्टर की कपार पर आज फिर एगो नवका टोपी चढ़ गइल। आजादी की लड़ाई में गांधी बाबा की कपारे भले कम लउकल लेकिन गांधीवादिन की कपार पर ज्यादा लउकल गांधीवादी टोपी। नेताजी के टोपी आजाद हिंद फौज के टोपी रहल। देश आजाद हो गइल लेकिन नेताजी की मौत से रहस्य के पर्दा आज ले ना उठा पवलें टोपीधारी लोग। भगत सिंह वाली टोपी पहिनले से केहू क्रांतिकारी ना हो सकेला। भगत सिंह त देश खातिर फांसी चढ़ गइलें। रमजान की महीना में रंगिबरंगी टोपी लउकेली। रोजा न रहे लेकिन कपार पर जालीदार टोपी पहिन के कुछ हिंदूवादी लोग भी अफ्तार कइला से ना चुकेलन। टोपी मान ह, सम्मान ह, निशान ह, पहिचान ह। टोपी की प्रकार पर बात कइल जा त बहुत विस्तार हो जाई। मौसम की मिजाज से भी लोग टोपी के चयन करेलन। बरसात में बरसाती टोपी, गरमी में धूपी टोपी आ इ जवन जाड़ा चलत बा येहमा मंकी टोपी ही लउकत बा। कई लोग के मुंडी पर शौकिया हिमांचली टोपी, राजा मंडा वाली टोपी, क्रिकेटवाली टोपी आदि बहुत प्रकार के टोपी शोभा देली। आज कल एगो खास टोपी आम आदमी की कपार उग आइल बा। देश में टोपी उछलउअल के खेल होता। टोपी राजनीति में समइला के भी जरिया बा। आखिर हरज का बा। टोपी पहिन सत्ता में समाई फिर टोपी के उल्टा कर के पीटो -पीटो। धन पीटो। दौलत पीटो। मोटर-गाड़ी, बंगला-लॉकर पीटो। टोपी-टोपी, पीटो-पीटो करत एगो साम्राज्य खड़ा कर दीं। फिर वंशवाद के वेल बढ़ाई। लोकतंत्र की नाम पर राजतंत्र चलायीं।आंख उठाके देखीं, येही वंशवाद की चलते सत्ता कुछ परिवारन की हाथ के खिलौना बन के रहि गइल बा। सब बदलाव चाहत बा, लेकिन एगो नियम बनावला के बात केहू ना उठावत बा कि जे लोकतंत्र के राजा चुना जाई ओकर भाई-भतीजा-भांजा, चचिआउत, पितिआउत, मौसिआउत, फुफुआउत, ममिआउत चाहें कवनो आउत होखे राजनीति में समइला पर प्रतिबंध रही। अगर अइसन नियम बन जा त राजनीति पवित्र हो जाई। इ परिवर्तन रउरी एगो वोट से हो सकेला। वोट माने मत। मत माने बुद्धि। त आई संकल्प कइल जा अपनी बुद्धि के हरण ना होखे दिहल जाई। अब इ कविता-
 रउरी हाथे ही हो जाई, लोकतंत्र के शुद्धिकरण। 
बहुत-बहुत बहुरूपिया अइलें, सबकर हो गइल अनावरण।। 
 सत्ता पवते के ना कइलें, मद-मोह आ लोभवरण।
 पैंसठ साल में एतना चूसलें, चौतरफा हो गइल क्षरण।।
 जनता के हथजोड़ी कइलें, पूजववलें फिर आपन चरण। 
रणक्षेत्र शिखंडी निकरल, बूझत रहलीं वीर करण।। 
जाति-धरम के फसल उगा के, कइले बहुत ही वोटहरण।
 कहें देहाती जगों सपूतों, होने ना दो बुद्धिहरण।।
-नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती का यह भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 9 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है।  

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