मनबोध मास्टर की कपार पर आज फिर एगो ठीकरा फोरा गइल। मास्टर के कपार बरियार
ह, काहे की उ मीडियावाला हवें। लोकहित की चाह में आज गली-गली मुफ्तखोरी के
चाय पीये के मिलल। आज ले छुंछ पानी भी ना पूछत रहलें। विकास के बाजा बजा
के राजा बने की युगत में के ना लागल बा? कबो रानी जी, कबो महरानी जी, कबो
बेटिंग आफ पीएम, कबो एगो सीएम, कबो केहू-कबो केहू.। मीठा-मीठा त गप्प हो
जाता, तनिसा कड़ुआ भइल की मीडिया के दोष। मीडिया गांव के करिमना हो गइल बा।
जवना की बारे में कहल गइल-‘ रहल करिमना त घर गइल, गइल करिमना त घर गइल।’
लोकतंत्र के जनतंत्र, भीड़तंत्र, धनतंत्र, लट्ठतंत्र, धर्मतंत्र,
मर्मतंत्र, कुकर्मतंत्र,बेशर्मतंत्र आदि कई तंत्र की रूप में बदलत बहुत
करीब से देखले बा करिमना। देखले त मनबोध भी बाड़न लेकिन उनकी ऊपर जवन
मीडियावाला के ठप्पा लागल बा, ओहसे बहुत बच-बचाके बतावेलन। सत्ता के स्वाद
चीखते आदमी के चाल , चरित्र, चेहरा बदलत लउकत बा। देश में ईमानदार दिखला के
होड़ लागल बा। अच्छा बात बा, बेईमान आ बेईमानी खत्म हो जा त का बुराई बा।
कपार पर उज्जर टोपी पर कुछ करिया अक्षर लिख के पहिन लिहले का सचहूं
ईमानदारी के सर्टिफिकेट मिल जाई? का सचहूं चरित्र उज्जर हो जाई? देश से
भ्रष्टाचार मेटावे खातिर सब आगे आवता। कई जने के चेहरा देखते याद आ जाता
उनकर लड़कपन, जवानी आ ढलानी के कहानी, नादानी, शैतानी, बेईमानी..। हंसी
आवति बा। सरकार , सरकार से लड़ति बा। दु दमदार की लड़ाई में नुकसान त जनता
के ही होई। लड़ला-लड़ावला की लटका-झटका से का सुशासन लौट आई। सत्ता में रह
के धरना-प्रदर्शन के बात कवनो नया ना बा। बहुत हल्लाबोल टाइप के नौटंकी
देखल गइल। दिल्ली में आम आदमी सत्ता पा गइलें,फिर काहें आम आदमी परेशान बा?
शासन में अइला की बाद अनुशासन से काम करे के चाहीं। विरोध त विरोधी की
बखरे छोड़ देई। दिल्ली के सरकार मीडिया पर खिसिआइल बा। खिसियाइल त यूपी के
एगो मनिस्टर भी बाड़न। भईया! आईना पर दोष काहें लगावत हवें। जेइसन चेहरा
रही ओइसने मोहरा दिखी। दिल्ली के सरकार बनवला के दोष भी मीडिया पर ही लागल
रहे। अब एगो कविता-
ह, काहे की उ मीडियावाला हवें। लोकहित की चाह में आज गली-गली मुफ्तखोरी के
चाय पीये के मिलल। आज ले छुंछ पानी भी ना पूछत रहलें। विकास के बाजा बजा
के राजा बने की युगत में के ना लागल बा? कबो रानी जी, कबो महरानी जी, कबो
बेटिंग आफ पीएम, कबो एगो सीएम, कबो केहू-कबो केहू.। मीठा-मीठा त गप्प हो
जाता, तनिसा कड़ुआ भइल की मीडिया के दोष। मीडिया गांव के करिमना हो गइल बा।
जवना की बारे में कहल गइल-‘ रहल करिमना त घर गइल, गइल करिमना त घर गइल।’
लोकतंत्र के जनतंत्र, भीड़तंत्र, धनतंत्र, लट्ठतंत्र, धर्मतंत्र,
मर्मतंत्र, कुकर्मतंत्र,बेशर्मतंत्र आदि कई तंत्र की रूप में बदलत बहुत
करीब से देखले बा करिमना। देखले त मनबोध भी बाड़न लेकिन उनकी ऊपर जवन
मीडियावाला के ठप्पा लागल बा, ओहसे बहुत बच-बचाके बतावेलन। सत्ता के स्वाद
चीखते आदमी के चाल , चरित्र, चेहरा बदलत लउकत बा। देश में ईमानदार दिखला के
होड़ लागल बा। अच्छा बात बा, बेईमान आ बेईमानी खत्म हो जा त का बुराई बा।
कपार पर उज्जर टोपी पर कुछ करिया अक्षर लिख के पहिन लिहले का सचहूं
ईमानदारी के सर्टिफिकेट मिल जाई? का सचहूं चरित्र उज्जर हो जाई? देश से
भ्रष्टाचार मेटावे खातिर सब आगे आवता। कई जने के चेहरा देखते याद आ जाता
उनकर लड़कपन, जवानी आ ढलानी के कहानी, नादानी, शैतानी, बेईमानी..। हंसी
आवति बा। सरकार , सरकार से लड़ति बा। दु दमदार की लड़ाई में नुकसान त जनता
के ही होई। लड़ला-लड़ावला की लटका-झटका से का सुशासन लौट आई। सत्ता में रह
के धरना-प्रदर्शन के बात कवनो नया ना बा। बहुत हल्लाबोल टाइप के नौटंकी
देखल गइल। दिल्ली में आम आदमी सत्ता पा गइलें,फिर काहें आम आदमी परेशान बा?
शासन में अइला की बाद अनुशासन से काम करे के चाहीं। विरोध त विरोधी की
बखरे छोड़ देई। दिल्ली के सरकार मीडिया पर खिसिआइल बा। खिसियाइल त यूपी के
एगो मनिस्टर भी बाड़न। भईया! आईना पर दोष काहें लगावत हवें। जेइसन चेहरा
रही ओइसने मोहरा दिखी। दिल्ली के सरकार बनवला के दोष भी मीडिया पर ही लागल
रहे। अब एगो कविता-
मीडिया न होता, तो सरकार नहीं होते।
सिंहासन न मिलता,
चाहें कितना भी रोते।।
चाहें कितना भी रोते।।
कह रहे मीडिया आधा कांग्रेसी, आधा भाजपाई है।
हम
कहते हैं, यह पूरा का पूरा मौकाई है।।
कहते हैं, यह पूरा का पूरा मौकाई है।।
आईना का क्या दोष, जो देखा बता दिया।
मीठा तो बहुत हुआ, थोड़ा मिर्चा चखा दिया।।
गालियां बको या बददुआ दो,
मिटेगा न मीडिया।
मिटेगा न मीडिया।
जब भी कुछ कहोगे, सामने ही होगा मीडिया।।
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 23 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है
- नर्वदेश्वर पाण्डेय देहाती भोजपुरी व्यंग्य राष्ट्रीय सहारा के 23 /1 /14 के अंक में प्रकाशित है
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