गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

एक दिन कS चांद

एक दिन कS चांद.............
बतकही। सत्ताइस अक्टूबर दो हजार दस की रात के बात। इन्टरनेट  पर खबरन से खेलत माउस पर हाथ। तबले बजल मोबाइल के घंटी। अरे, इ का? अबहीन त S आठ बजत बा। घर से फोन काहें आ गइल। मानसिक रूप से तैयार होत रहलीं कि डांट-फटकार सुने के परी। लगता बा फिर हमसे गलती भइल बा। किचेन के बर्तन ना धोके अइलीं का? लेकिन सर्वदा कर्कश गर्जना की जगह सुनाइल मिसिरी घोरल आवाज। ए जी! सुनत हईं? राउर आरती उतारे के बा। हमरा व्रत तोड़े के बा। दिनभर निर्जल व्रत रहलीं ह। हम लगलीं सोचे- मैडम कहिया से एकादशी भुखे लगली। माई-दादी-दादा त भुखेंले। उहो एकादशी में हमार आरती काहें उतरी।
भगवान की तरफ से भाग्य बना के आइल बानीं। घर के मलिकई कपार पर बा, त मार-मुकदमा, फौजदारी घटल-बढ़ल, हीन-नात, नेवता-हंकारी पर-पट्टीदारी, खेती-बारी, खाद-बीया, कटिया-पिटिया सब निभावे के बा। कवनो चीज में कमी भइल त हमरे कपार नोंचाई। इ आज आरती कवना बात के? बड़ा हिम्मत क के पूछि बइठलीं- श्रीमती जी! आज कवन व्रत ह, काहें हमार आरती उतारब? उ बतवलीं- करवा चौथ। हमरा मुंह से हंसी निकर गइल। उ कहली-हंसी जनि जल्दी आईं। चांद उगेवाला हवें। उनके चलनी से निहारे के बा, आ रउरा के भर नजर देखे के बा। रउरे हमार चांद हईं। हमरा फिर हंसी छूटि गइल। हमेशा हमार नामकरण गोबरगनेश, घोंचू, बकलोल, करिझींग्गन, बतबहक, घरघूमन, चौपट, अड़भंगी, कंजूस अइसन शब्दन से होत रहे। आज जमाना पलट गइल। हम चांद हो गइलिन। एक दिन क चांद।
धन्य हो करवा चौथ। ना कवनों पुराण में येकर व्याख्या बा ना कवनो धर्मशास्त्र में। फिल्मी दुनिया वाला अस देखवले कि घर-घर में छा गइल करवा चौथ। खैर, मैडम चलनी से चांद निहरली, हमके चांद बनवलीं, हमहूं उनकर चेहरा निहरलीं, त आज सुरसा, ताड़का, त्रिजटा, सूर्पणखा, चुड़ैल सा दिखे वाली छाया समाप्त हो गइल रहे। उ सावित्री अइसन सुघ्घर, सुकांत, सती, सौंदर्य के मूरति बनि गइल रहली
। 

थाली सजा के हमार आरती उतारत रहली, आ हम गुनगुनाये लगलीं- जनम-जनम का साथ है हमारा तुम्हारा...।
                              एन. डी. देहाती  

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