शिक्षक दिवस (डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती) के अवसर पर गुरुवो के श्री चरणों में शीश नवा कर यह विचार प्रस्तुत कर रहा हु
वैश्विक परिदृश्य में गुरु-शिष्य संबंधों में भी काफी बदलाव आया है। यह उतार-चढ़ाव कई बार बाजार की जरूरत जैसा लगता है। कोचिंग संस्थान प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए छात्रों का दाखिला लेते समय उनका शोषण करते हैं और जब वही छात्र टॉप करता है, तो उसकी चिरौरी कर अपने संस्थान का नाम प्रचारित करने से भी पीछे नहीं रहते। कभी-कभी छात्र इस प्रचार की कीमत भी वसूल लेते हैं। यह दर्शाता है कि अब अर्थ प्रधान हो चुका है यह रिश्ता। तभी आज का शिष्य पूछता है, गुरु काहे लागूं पांव। सवाल यह उठता है कि कहां गया शिक्षक और शिष्य के बीच का वह अनकहा अनछुआ सा रिश्ता। कहां गई गुरु शिष्य परंपरा। कहां गई नैतिकता। शिक्षक बच्चों को दंड नहीं दे सकते। इसमें कानूनी अड़चन है।अधयपाकी बिजनेश हो गयी.यही कारण है कि शिक्षकों और छात्रों में व्यावसायिक संबंध हो गया है। शिक्षक खुद नैतिक रूप से मजबूत नहीं हैं। वह विद्यार्थियों को क्या नैतिकता का पाठ पढ़ाएगा। अब शिक्षक अध्यापन को महज नौकरी मान बैठे हैं। समाज और देश में अपनी भूमिका के महत्व को नहीं जान पाते। यही कारण है कि शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। ऐसे में गुरु शिष्य परंपरा कहां सुरक्षित रहेगी। गुरु शिष्य परंपरा तभी जीवित रहेगी, जब शिक्षा का व्यवसायीकरण रुकेगा। गुरुजी खुद चरित्रवान नहीं हैं और विद्यार्थियों को चरित्र की शिक्षा देते हैं। इन सब के बावजूद भी छात्रों को चाहिए कि वे अपने गुरुओं का सम्मान करें।
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