सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

25 अक्टूबर 21 के वायश आफ शताब्दी के अंक में प्रकाशित

नगर -डगर की बात/ एन डी देहाती

महंगी बा एतना, चहछननी से चेहरा निहार ल

मनबोध मास्टर बाजार जाये बदे निकरलन। सालो-साल गाल फुलवले, मुंह ओरमवले रहे वाली मस्टराइन, आज बिहाने से ही चहकत रहली। उनकर रूपजाल देख के मनबोध मास्टर वइसे सम्मोहित रहलें, जेईसे मोदी के भाषण सुन के भाजपाई। मास्टर रोमांचित रहलें, आनंदित रहलें। झुराइल जिनगी की रेगिस्तान में कुछ-कुछ हरियर लउके लागल। भोरही से मस्टराइन के एक ही रट- ए जी! सुनत हई। आज बाजार जाईब त संवकेरे घरे आ जाइब, आज करवा चौथ ह। आज राउर चांद नियर चेहरा चलनी से निहरला की बादे हम पानी पिअब। आवत में बाजार से एगो नया चलनी आ किचन के कुछ सामान लेत आइब। सांझ बेरा मास्टर बाजार गईलें। बाजार में आग लागल रहे। टमाटर के भाव सुनते चेहरा लाल हो गइल। प्याज त परवल की भाव रहे। सरसों की तेल के खेल समझ मे ना आइल त सोचले कि डॉक्टर साहब तेल-मसाला मने कईलें हवें। गोभी, परवल में तेल मसाला लागी। नेनुआ लीया जाऊ। ओही के उसीन के क्षुधा के आग बुझावल जाई। नेनुआ भी असो बरेडी चढ़ल रहे। तीस रुपया किलो बिकत रहे। कइसो सब्जी लिआईल। चलनी की बेर जेब मे पांच रुपया के एगो सिक्का बचल रहे। चलनी के दाम बीस रुपया सुनके मास्टर चलनी की जगह प्लास्टिक वाली चहछननी खरीद के चल दिहलन। सोचत जात रहलें, मुहें न देखे के बा। असो चलनी की जगह चहछननी ही सही। रास्ता में स्कूटर के तेल खत्म। ढकेलत, हाफ़त, पेट्रोल की महंगी पर गरिआवत घरे पहुंचते पता चलल कि सिलेंडर खत्म। चकरा के गिर गईलें। एक त करोना की बेमारी में कर्जा से चताईल रहलें, ऊपर से महंगी के मार। गैस पर जवन छूट मिलत रहे उहो खत्म। चार सौ वाला सिलिंडर एक हजार पार। वाह रे सरकार। यह अच्छा दिन से त उ बऊरके दिन ठीक रहे। पर्व त्योहार अब अमीरन खातिर ही बा। गरीब आदमी कईसे जी। मास्टराईन एक ओर आसमान की चांद के निहारत रहली त दूसरा ओर बरामदा में कपारे हाथ धइले अपनी चांद के। बोलली- चिंता छोड़ीं, चलीं राउर आरती उतारेके बा। मनबोध मास्टर सोचे लगलें- अगर इ व्रत ना रहित त मस्टराइन के मधुरीबानी की जगह रोज सुने वाला कर्कश आवाज ही सुने के मिलत। आदमी के जीवन एगो पत्ता अइसन बा। क्षणिक सत्ता पर एतना गुमान रहत बा। मनई जीवन की डाल से लटकल बा। मोह-माया में भटकल बा। जेकरा पर पूरा जवानी कुर्बान क दिहल गइल, अभाव में लोग के स्वभाव बदल जाला।भला हो हमरी संस्कृति के, हमरी परंपरा के, पर्व-त्योहार के। इ प्रेम के उमंग बढ़ावत बा। जीवन में खुशबू महकावत बा। घरकच की करकच में रोज-रोज घटल नून-तेल-मरिचाई के चिंता से मुक्ति दिया के पूजा-पाठ-वंदन के उछाह बढ़ावत बा। मास्टराईन चहछननी देख के बोल पड़ली-का दिन आ गईल। चलनी की जगह चहछननी पर आम आदमी आ गईल। पड़ोस में केहू कविता पढ़त रहे-

बिगड़त बजट बाटे, अबो से सम्हार ल।
चाह बहुत पियला, अब खाली ओठ जार ल।
खूनचुसवन से अबकी बेर किनार ल।
महंगी बा एतना, चहछननी से चेहरा निहार ल।।

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